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कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार गंतराइयाणमणुभागो बंधेण देसघादी जादो । २०५. तदो द्विदिखंड यपुधत्तेण वीरियंतराइयस्स अणुभागो बंधेण देसघादी जादो।
२०६. तदो द्विदिखंड यसहस्सेसु गदेसु अण्णं द्विदिखंडयमण्णमणुभागखंड यमण्णो द्विदिवंधो अंतरद्विदीओ च उक्कीरिदुं चत्तारि वि एदाणि करणाणि समगमाहत्तो। २०७. चउण्हं संजलणाणं णवण्हं णोकसायवेदणीयाणमेदेसिं तेरसण्हं कम्माणमंतरं । २०८. सेसाणं कम्माणं णत्थि अंतरं । २०९. पुरिसवेदस्स च कोहसंजलणाणं च पडमद्विदिमंतोमुहुत्तमेत्तं मोत्तूणमंतरं करेदि । सेसाणं कम्माणमावलियं मोत्तण अंतरं करेदि । २१०. जाओ अंतरविदीओ उक्कीरंति तासिं पदेसग्गमुक्कीरमाणियासु द्विदीसु ण दिज्जदि । २११. जासिं पयडीणं पडमट्टिदी अस्थि तिस्से पढमहिदीए जाओ संपहि-द्विदीओ उक्कीरंति तमुक्कीरमाणगं पदेसग्गं संछुहदि । २१२. अध जाओ बझंति पयडीओ तासिमाबाहामधिच्छियूण जा जहणिया णिसेगठिदी तमादि कादूण बज्झमाणियासु हिदीसु उक्कड्डिज्जदे । २१३. संपहि अवद्विदअणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु अण्णमणुभागखंडयं जो च अंतरे जाता है । पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके द्वारा आभिनिवोधिक ज्ञानावरणीय और परिभोगान्तराय कर्मका अनुभाग वन्धकी अपेक्षा देशघाती हो जाता है। पुनः स्थितिकांडकपृथक्त्वके द्वारा वीर्यान्तरायकर्मका अनुभाग बन्धकी अपेक्षा देशघाती हो जाती है ॥२००-२०६॥
चूर्णिसू०-तत्पश्चात् सहस्रों स्थितिकांडकोके बीत जानेपर अन्य स्थितिकांडक, अन्य अनुभागकांडक, अन्य स्थितिबन्ध और उत्कीरण करनेके लिए अन्तर-स्थितियाँ, इन चारों करणोको एक साथ आरम्भ करता है। चारों संज्वलन और नवो नोकषाय वेदनीय, इन तेरह कर्मों का अन्तर करता है। शेष कर्मों का अन्तर नहीं होता है । पुरुषवेद और संज्वलनकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथमस्थितिको छोड़कर अन्तर करता है। (क्योंकि यहाँ इनका उदय पाया जाता है । ) शेष कर्मों की आवलीप्रमाण प्रथमस्थितिको छोड़कर अन्तर करता है । ( क्योकि यहाँ उनका उदय नहीं है।) जिन अन्तरस्थितियोको उत्कीर्ण किया जाता है, उनके प्रदेशाग्रको उत्कीर्ण की जानेवाली स्थितियोमें नहीं देता है । किन्तु जिन उदयप्राप्त प्रकृतियोकी प्रथमस्थिति है, उस प्रथमस्थितिमे और जो इस समय स्थितियाँ उत्कीर्ण की जा रही हैं, उनमें उस उत्कीर्ण किये जानेवाले प्रदेशाग्रको यथासंभव समस्थिति-संक्रमणके द्वारा संक्रान्त करता है । तथा जो प्रकृतियाँ बंधती हैं, उनकी आबाधाका अतिक्रमण कर जो जघन्य निषेकस्थिति है, उसे आदि करके वध्यमान स्थितियोमें अनन्तर-स्थितियोंमे उत्कीर्ण किये जानेवाले उस प्रदेशाग्रको उत्कर्षणके द्वारा संक्रान्त करता है। इस प्रकार अवस्थित रूपसे सहस्रो अनुभागकांडकोके व्यतीत होनेपर अन्य अनुभागकांडक, अन्तरकरणमें स्थितियोके उत्कीर्ण करते समय जो स्थितिबन्ध बाँधा था,
१ तत्थ किमंतरकरण णाम ? अतरं विरहो सुण्णभावो त्ति एयट्ठो। तस्स करणमतरकरणं, हेट्ठा उवरिं च केत्तियाओ ठ्ठिदोओ मोत्तूण मज्झिल्लाणं ट्ठिदीर्ण अंतोमुहुत्तपमाणाण णिसेगे सुण्णत्तसपादणमंतरकरणमिदि भणिदं होइ । जयध० -