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कसाय पाहुड सुत्त [१४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार णोकसायवेदणीया उसेसाण च आउगवन्जाणं कम्माणं गुणसेडिणिक्खेवेण तुल्लो सेसे सेसे च णिक्खेवोछ । ४५८. ताधे चेव पुरिसवेदस्स हिदिबंधो बत्तीस वस्साणि पडिवुण्णाणि । ४५९. संजलणाणं द्विदिबंधो चदुसहिवस्साणि । ४६०. सेसाणं कम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ४६१. पुरिसवेदे अणुवसंते जाव इत्थिवेदो उवसंतो एदिस्से अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णामा-गोद-वेदणीयाणमसंखेज्जवस्सियद्विदिगो वंधो।
४६२. ताधे अप्पाबहुअं कायव्वं । ४६३. सव्वत्थोवो मोहणीयस्स द्विदिवंधो। ४६४. तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिवंधो संखेज्जगुणो। ४६५. णामा-गोदाणं ठिदिवंधो असंखेज्जगुणो । ४६६. वेदणीयस्स द्विदिवंधो विसेसाहिओ। ४६७. एत्तो डिदिबंधसहस्सेसु गदेसु इत्थिवेदमेगसमएण अणुवसंतं करेदि । ४६८. ताधे चेव तमोकड्डियूण आवलियबाहिरे गुणसेहिं करेदि । ४६९. इदरेसिं कम्माणं जो गुणसेहिणिक्खेवो तत्तियो चेव इत्थिवेदस्स वि, सेसे सेसे च णिक्खिवदि ।
४७०. इत्थिवेदे अणुवसंते जाव णसयवेदो उवसंतो एदिस्से अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणमसंखेज्जवस्सियहिदिवंधोजादो । ४७१. ताधे मोहणीयस्त द्विदिबंधो थोवो । ४७२. तिण्डं घादिकम्माणं द्विदिबंधो असंखेज्जहोता है । शेष शेपमें निक्षेप होता है। उसी समयमें पुरुषवेदका स्थितिवन्ध पूरे वत्तीस वर्ष होता है । संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध चौसठ वर्प होता है और शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष होता है । पुरुषवेदके अनुपशान्त होनेपर जब तक स्त्रीवेद उपशान्त रहता है, तब तक इस मध्यवर्ती कालके संख्यात वहुभागोके बीत जानेपर नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध असंख्यात वर्पप्रमाण होता है ।।४५३-४६१।।
चूर्णिसू०-उस समय इस प्रकार अल्पबहुत्व करना चाहिए-मोहनीयका स्थितिवन्ध सबसे कम होता है। तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है । नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा होता है। इससे वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है। इससे आगे सहस्रो स्थितिवन्धोंके व्यतीत होनेपर स्त्रीवेदको एक समयमे अनुपशान्त करता है। उसी समयमें ही स्त्रीवेदका अपकर्षण करके उदयावलीके बाहिर गुणश्रेणी करता है । अन्य कर्मोंका जो गुणश्रेणीनिक्षेप है, उतना ही स्त्रीवेदका भी होता है । शेष शेषमें निक्षेप करता है ॥४६२-४६९॥
चूर्णिसू०-स्त्रीवेदके अनुपशान्त होनेपर जब तक नपुंसकवेद उपशान्त रहता है, तव तक इस मध्यवर्ती कालके संख्यात बहुभागोके बीतनेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका स्थितिबन्ध असंख्यात वर्पप्रमाण हो जाता है। उस समयमें मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध सबसे कम है । तीन घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है। इससे नाम
७ ताम्रवाली प्रतिमे 'णिक्खेवो' के स्थानपर 'णिक्खिवदि पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १९०३)