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कसाय पाहुड सुन्त | १४ चारित्र मोह - उपशामनाधिकार
४८२. अणियद्विप्प हुडि मोहणीयस्स अणाणुपुव्विसंकमो, लोभस्स वि संकमो । ४८३. जाधे असंखेज्जवस्सिओ द्विदिबंधो मोहणीयस्स, ताधे मोहणीयस्स द्विदिबंधो थोवो । ४८४. घादिकम्माणं ट्ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । ४८५. णामागोदाणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ४८६. वेदणीयस्स द्विदिबंधो विसेसाहिओ । ४८७. एदेण कमेण संखेज्जेस द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु अणुभागबंधेण वीरियं तराइयं सव्वघादी जादं । ४८८ . तदो ठिदिबंधपुधत्तेण आभिणिवोधियणाणावरणीयं परिभोगंतराइयं च सव्ववादीणि जादाणि । ४८९. तो ठिदिबंधपुधत्तेण चक्खुदंसणावरणीयं सव्वधादी जादं । ४९० . तदो ठिदिबंध पुधचेण सुदणाणावरणीयम चक्खुदंसणावरणीयं भोगंतराइयं च सव्वधादीणि जादाणि । ४९१. तदो ठिदिबंधपुधत्तेण अधिणाणावरणीयं अधिदंसणावरणीयं लाभतराइयं च सव्वधादीणि जादाणि । ४९२. तदो डिदिबंधपुधतेण मणपज्जवणाणावरणीयं दाणत इयं च सव्ववादीणि जादाणि ।
४९३. तदो द्विदिबंध सहस्सेसु गदेसु असंखेज्जाणं समयपवद्धाणमुदीरणा पडि
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तब छह आवलीकालके पश्चात् उदीरणाका नियम नहीं रहता । इस पर जयधवलाकारका मत यह है कि यदि ऐसा माना जाय, तो 'सव्वस्स पडिवमाणगस्स' इस चूर्णि सूत्र में जो 'सर्व' पदका प्रयोग किया गया है, वह निष्फल हो जायगा । अतएव पूर्वोक्त अर्थ ही प्रधानरूपसे मानना चाहिए ।
चूर्णिसू० – अनिवृत्तिकरणके काल से लेकर ( सर्व उतरनेवाले जीवोके ) मोहनीय - कर्मका अनानुपूर्वी-संक्रमण होने लगता है और लोभका भी संक्रमण प्रारम्भ हो जाता है । जब मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध असंख्यात वर्षप्रमाण होता है, तब मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है और शेप घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । इससे नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा होता है । इससे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है। इस क्रम संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोके व्यतीत हो जानेपर वीर्यान्तरायकर्म अनुभागबन्धकी अपेक्षा सर्वघाती हो जाता है । तत्पश्चात् स्थिति
पृथक्त्वसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय और परिभोगान्तराय कर्म सर्वघाती हो जाते हैं । तदनन्तर स्थितिबन्धपृथक्त्व से चक्षुदर्शनावरणीयकर्म सर्वघाती हो जाता है । तदनन्तर स्थितिबन्धपृथक्त्वसे श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय कर्म सर्वघाती हो जाते हैं । तदनन्तर स्थितिबन्धपृथक्त्व से अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय कर्म सर्वघाती हो जाते हैं । तदनन्तर स्थितिबन्धपृथक्त्वसे मन:पर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तराय कर्म सर्वघाती हो जाते है ॥४८२-४९२॥
चूर्णिसू० - तत्पश्चात् सहस्रो स्थितिबन्धोके बीत जानेपर असंख्यात समयप्रबद्धोकी उदीरणा नष्ट हो जाती है और समयप्रवद्धके असंख्यात लोकभागी अर्थात् असंख्यात लोकसे