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गा० १२३ ।
पतमान- उपशामक विशेषक्रिया निरूपण
हम्मदि असंखेज्ज लोग भागो समयपबद्धस्स उदीरणा पवत्तदि । ४९४. जाधे असंखेज्जलोग डिभागो समयपचद्धस्स उदीरणा, ताधे मोहणीयस्स द्विदिबंधो थोवो । ४९५. घादिकम्माणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ४९६. णामा गोदाणं द्विदिवंधो असंखेज्जगुणो । ४९७ वेदणीयस्स द्विदिबंधो विसेसाहिओ । ४९८. एदेण कमेण द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु तो एकसराहेण मोहणीयस्स द्विदिबंधो थोवो | ४९९. णामा-गोदाणं द्विदिबंधो असंखेखेज्जगुणो । ५००. घादिकम्माणं द्विदिबंधो विसेसाहिओ । ५०१ वेदणीयस्स द्विदिबंधो विसेसाहिओ । ५०२. एवं संखेज्जाणि ठिदिबंध सहस्साणि काढूण तदो एकसराहेण मोहणीयस्स द्विविधो थोवो । ५०३ णामा-गोदाणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ५०४. णाणावरणीय दंसणावरणीय वेदणीय अंतरायाणं द्विदिबंधो तुल्लो विसेसाहिओ ।
५०५. एवं संखेज्जाणि द्विदिबंध सहस्साणि गदाणि । ५०६. तदो अण्णो विदिबंधो एकसराहेण णामा-गोदाणं द्विदिबंधो थोवो । ५०७. मोहणीयस्स विदिबंधो विसेसाहिओ । ५०८. णाणावरणीय दंसणावरणीय वेदणीय अंतराइयाणं ट्ठि दिबंधो तुल्लो विसेसाहिओ । ५०९. एदेण कमेण द्विदिबंधसहस्त्राणि बहूणि गदाणि । ५१०. तदो भाजित करनेपर एक भागमात्र उदीरणा प्रवृत्त होती है । जिस समय समयप्रवद्धकी असंख्यात लोक प्रतिभागी उदीरणा प्रवृत्त होती है उस समय मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे कम है । शेष घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है । इससे नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे वेदनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी क्रमसे स्थितिबन्ध-सहस्रोंके वीत जानेपर एक साथ मोहनीयका स्थितिवन्ध सबसे कम होता है । नाम और गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा हो जाता है । इससे तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है और वेदनीयका स्थितिवन्ध विशेष अधिक होता है । इस प्रकार संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध करके तत्पश्चात् एक साथ मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है । इससे नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुण होता है । इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मका स्थितिबन्ध परस्परमे समान होते हुए विशेष अधिक होता है ॥४९३-५०४ ॥
चूर्णिसू० ० - इस प्रकार संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते हैं । तत्पश्चात् अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है और एक साथ नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम हो जाता है । इससे मोहनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय, इनका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और विशेष अधिक होता है । इस क्रमसे बहुतसे स्थितिबन्ध-सहस्र बीत जाते हैं । तत्पश्चात अन्य प्रकारका स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है और एक साथ नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध
-: ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'असंखेज्जलोग भागो समयपवद्धस्स उदीरणा पवत्तदि' इतना अशको टीकामे सम्मिलित कर दिया है । ( देखो पृ० १९०८ )