________________
१५ चरितमोहक्खवणा- अत्थाहियारो
१. चरित्तमोहणीयस्स खवणार अधापवत्तकरणद्धा अपुव्वकरणद्धा अणियडिकरणद्धा च एदाओ तिण्णि वि अद्धाओं एगसंबद्धाओ एगावलियाए ओट्टिदव्चाओ । २. तदो जाणि कम्पाणि अत्थि तेसिं ठिदीओ ओट्टिदव्बाओ । ३. तेसिं चेव अणुभागफक्ष्याणं जहणफद्दय पहुडि एगफद्दयआवलिया ओट्टिदव्या ।
४. तदो अधापवत्तकरणस्स चरिमसमये अप्पा इदि कट्टु इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासियव्वाओ । ५. तं जहा । ६. संकापणपट्टवगस्स परिणामो केरिसो भवदिति विहासा । ७. तं जहा । ८. परिणामो विसुद्धो पुव्वं पि अंतोमुहुत्तप्पहुडि विमुज्झमाणो आगो अनंतगुणाए विसोहीए । ९. जोगे त्तिविहासा । १०. अण्णदरो मणजोगी, अण्णदरो वचिजोगो, ओरालियकायजोगो वा । ११. कसाये त्तिविहासा ।
१५ चारित्रमोहक्षपणा - अर्थाधिकार
कर्म-क्षय कर जो बने, शुद्ध बुद्ध अधिकार | भायूँ तिनको नमन कर, यह क्षपणा अधिकार ॥
चूर्णिसू० - चारित्रमोहनीयकी क्षपणा में अधःप्रवृत्तकरणकाल, अपूर्वकरणकाल और अनिवृत्तिकरणकाल, ये तीनो काल परस्पर सम्बद्ध और एकावली अर्थात् ऊर्ध्व एक श्रेणीके आकार से विरचित करना चाहिए । तदनन्तर जो कर्म सत्ता में विद्यमान हैं, उनकी स्थितियोंकी पृथक्-पृथक् रचना करना चाहिए । उन्हीं कर्मों के अनुभागसम्बन्धी स्पर्धको की जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक एक स्पर्धकावली रचना चाहिए || १-३॥
चूर्णिसू० - तत्पश्चात् अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय में 'आत्मा विशुद्धिके द्वारा बढ़ता है' इसे आदि करके इन वक्ष्यमाण प्रस्थापनासम्बन्धी चार सूत्र - गाथाओंकी विभाषा करना चाहिए । वह इस प्रकार है - 'संक्रामण- प्रस्थापकके अर्थात् कपायोका क्षपण प्रारम्भ करनेवाले के परिणाम किस प्रकारके होते हैं' इस प्रथम गाथाकी विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है परिणाम विशुद्ध होते हैं और कषायोंका क्षपण प्रारम्भ करने के भी अन्तर्मुहूर्त पूर्व से अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्ध होते हुए आरहे हैं। 'योग' इस पदकी विभाषा की जाती हैकषायोंका क्षपण करनेवाला जीव चारों मनोयोगोमेंसे किसी एक मनोयोगवाला, चारों वचनयोगोंमे से किसी एक वचनयोगवाला और औदारिककाययोगी होता है । 'कषाय' इस पदकी विभाषा की जाती है - चारों कषायोंमेसे किसी एक कषायके उदयसे संयुक्त होता है । क्या
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'अण्णदरो ओरालियकायजोगो वा' ऐसा पाठ है । (देखो पृ० १९४२)