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कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार तियमसाद-मिच्छत्त-वारसकसाय अरदि-सोग-इत्यिवेद-णqसयवेद-सव्वाणि चेव आउआणि परियत्तमाणियाओ णामाओ असुहाओ सव्वाओ चेव मणुसगइ-ओरालियसरीरओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बी आदावुज्जोवणामाओ च सुहाओ णीचागोदं च एदाणि कम्माणि बंधेण वोच्छिण्णाणि । ३२. थीणगिद्धितियं मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-वारसकसाय मणुसाउगवज्जाणि आउगाणि णिरयगइतिरिक्खगइ-देवगइपाओग्गणामाओ आहारदुगं च वज्जरिसहसंघडणवज्जाणि सेसाणि संघडणाणि मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बी अपज्जत्तणामं असुहतियं तित्थयरणामं च सिया, णीचागोदं एदाणि कम्माणि उदएण वोच्छिण्णाणि | ३३. अंतरं वा कहिं किच्चा के के संकामगो कहिं त्ति विहासा । ३४. ण ताव अंतरं करेदि, पुरदो काहिदि त्ति अंतरं ।
३५. किं द्विदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । ओवट्टेयूण सेसाणि के ठाणं पडिवज्जदि त्ति विहासा । ३६. एदीए गाहाए द्विदिघादो अणुभागघादो च सूचिदो भवदि । ३७. तदो इमस्स चरिमसमयअधापवत्त करणे वट्टमाणस्स पत्थि हिदिघादो अणुभागधादो वा । से काले दो वि घादा पवत्तिहिति ।
अरति, शोक, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, सभी आयुकर्म, परिवर्तमान सभी अशुभ नाम-प्रकृतियाँ, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर-अंगोपॉग, वज्रवृषभनाराचसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, और उद्योत नामकर्म, ये शुभ प्रकृतियॉ, तथा नीचगोत्र, इतने कर्म क्षपणा प्रारम्भ करनेवालेके वन्धसे व्युच्छिन्न हो जाते हैं । त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, मनुष्यायुको छोड़कर शेष आयु, नरकगति, तिर्यचगति और देवगतिके प्रायोग्य नामकर्मकी प्रकृतियाँ, आहारद्विक, वज्रवृपभनाराचसंहननके
अतिरिक्त शेष संहनन, मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्वी, अपर्याप्तनाम, अशुभत्रिक, कदाचित् तीर्थंकरनामकर्म और नीचगोत्र, इतने कर्म क्षपणा प्रारम्भ करनेवालेके उदयसे व्युच्छिन्न हो जाते हैं । 'कहॉपर अन्तर करके किन-किन कर्मोंको कहाँ संक्रमण करता है' तीसरी गाथाके इस उत्तरार्धकी विभाषा की जाती है-यह अधःप्रवृत्तकरणसंयत यहॉपर अन्तर नहीं करता है, किन्तु आगे अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होनेपर अन्तर करेगा ॥३०-३४॥
चूर्णिसू०-कपायोंकी क्षपणा करनेवाला जीव 'किस-किस स्थिति और अनुभागविशिष्ट कौन-कौनसे कर्मोंका अपवर्तन करके किस-किस स्थानको प्राप्त करता है और शेप कर्म किस स्थिति तथा अनुभागको प्राप्त होते हैं।' इस चौथी प्रस्थापन-गाथाकी विभापा की जाती है-इस गाथाके द्वारा स्थितिघात और अनुभागघात सूचित किया गया है। इसलिए अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमे वर्तमान कर्म-क्षपणार्थ समुद्यत इस.जीवके न तो स्थितिघात होता है और न अनुभागघात होता है। किन्तु तदनन्तरकालमे ये दोनो ही घात प्रारम्भ होगे ॥३५-३७॥