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कसाय पाहुड सुत्त ।[१४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार दिदूण लोभं वेदयमाणस्स जो पुव्वपरूविदो विधी सो चेव विधी कायव्यो । ५५७.एवं सायं वेदेमाणस्स।
५५८. तदो माणं वेदयंतस्स णाणत्तं । ५५९. तं जहा । ५६०. गुणसेडिणिक्खेवो ताव णवण्हं कसायाणं सेसाणं कम्माणं गुणसेढिणिक्खेवेण तुल्लो । सेसे सेसे च णिक्खेवो । ५६१. कोहेण उवद्विदस्स उवसामगस्स पुणो पडिवदमाणगस्स जद्देही माणवेदगद्धा एत्तियमेत्तेणेव कालेण माणवेदगद्धाए अधिच्छिदाए ताधे चेव माणं वेदंतो एगसमएण तिविहं कोहमणुवसंतं करेदि । ५६२. ताधे चेव ओकड्डियूण कोहं तिविहं पि आवलियबाहिरे गुणसेडीए इदरेसिं कम्माणं गुणसेडिणिक्खेवेण सरिसीए गिक्खियदि, तदो सेसे संसे णिक्खिवदि । ५६३. एदं णाणत्तं माणेण उवद्विदस्स उवसामगस्स, तस्स चेव पडिवदमाणगस्स ।
५६४. एदं ताव वियासेण णाणत्तं । एत्तो समासणाणत्तं वत्तइस्सामो । ५६५. तं जहा । ५६६. पुरिसवेदयस्स माणेण उवडिदस्स उवसामगस्स अधापवत्तकरणमादि कादण जाव चरिमसमयपुरिसवेदो त्ति णत्थि णाणत्तं । ५६७. पहमसमयअवेदगप्पहुडि जाव कोहस्स उवसामणद्धा ताव णाणत्तं । ५६८. माण-माया-लोभाणमुवसामणद्धाए णत्थि णाणत्तं । ५६९. उवसंतेदाणिं णत्थि चेव णाणत्तं । ५७०. तस्स चेव माणेण वेदन करते हुए जो विधि पूर्वमें प्ररूपित की गई है, वही विधि यहाँ भी प्ररूपण करना चाहिए । इसी प्रकार मायाकषायका वेदन करनेवालेके भी कहना चाहिए ॥५४७-५५७॥
चूर्णिसू०-इससे आगे मानकषायका वेदन करनेवाले जीवके विभन्नता होती है, जो कि इस प्रकार है-नवो कपायोका गुणश्रेणीनिक्षेप शेप कर्मोंके गुणश्रेणीनिक्षेपके तुल्य होता है और शेप शेषमे निक्षेप होता है। क्रोधके साथ चढ़े हुए उपशामकके पुनः गिरते हुए जितना मानवेदककाल है, उतनेमात्र कालसे मानवेदककालके अतिक्रमण करनेपर उसी समयमें ही मानका वेदन करता हुआ एक समयके द्वारा तीन प्रकारके क्रोधको अनुपशान्त करता है। उसी समयमें ही तीन प्रकारके क्रोधका अपकर्पण करके उदयावलीके बाहिर इतर कर्मोंके गुणश्रेणीनिक्षेपके सदृश गुणश्रेणीमे निक्षेप करता है और शेप शेषमें निक्षिप्त करता है। मानकषायके साथ चढ़नेवाले उपशामकके और गिरनेवाले उसी पुरुषवेदीके यह उपयुक्त विभिन्नता है ॥५५८-५६३॥
चूर्णिसू०-ऊपर यह विभिन्नता विस्तारसे कही । अब इससे आगे संक्षेपसे विभिनता कहते हैं । वह इस प्रकार है-मानकषायके साथ श्रेणी चढ़नेवाले पुरुषवेदी उपशामकके अधःप्रवृत्तकरणको आदि लेकर पुरुषवेदके अन्तिम समय तक कोई भी विभिन्नता नहीं है । प्रथमसमयवर्ती अवेदकसे लेकर जब तक क्रोधका उपशमनकाल है, तब तक विभिन्नता है । मान,,माया और लोभके उपशमनकालमे कोई विभिन्नता नहीं है। कषायोके उपशान्त होनेके समयमे भी कोई विभिन्नता नहीं है। उसी जीवके मानकपायके साथ चढ़कर और