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कसाय पाहुड सुप्त [ १४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार ५३५. से काले पढमसमयअधापवत्तो जादो । ५३६. तदो पढमसमयअधापवत्तस्स अण्णो गुणसेढिणिक्खेवो पोराणगादो णिक्खेवादो संखेज्जगुणो । ५३७. जाव चरिमसमयअपुव्यकरणादो त्ति सेसे सेसे णिक्खेवो । ५३८. जो पढमसमयअधापवत्तकरणेणिक्खेवो सो अंतोमुहुत्तिओ तत्तिओ चेव । ५३९. तेण परं सिया बहूदि, सिया हायदि, सिया अवट्ठायदि । ५४० परमसमयअधापवत्तकरणे गुणसंकमो वोच्छिष्णो । सव्वकम्माणमधापवत्तसंकमो जादो। णवरि जेसिं विज्झादसंकमो अत्थि तेसिं विज्झादसंकमो चेव । ५४१. उवसामगस्स पढमसमयअपुव्वकरणप्पहुडि जाव पडिवदमाणगस्स चरिमसमयअपुण्यकरणोति तदो एतो संखेज्जगुणं कालं पडिणियत्तो अधापवत्त करणेण उवसमसम्मत्तद्धूमणुपालेदि ।
५४२. एदिस्से उवसमसम्मत्तद्धाए अब्भंतरदो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, दो वि गच्छेज्ज । ५४३. छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि
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चूर्णिसू०- तदनन्तर समयमे वह प्रथमसमयवर्ती अधःप्रवृत्तकरणसंयत अर्थात् अप्रमत्तसंयत हो जाता है । तब अधःप्रवृत्तकरणसंयतके प्रथम समयमें अन्य गुणश्रेणीनिक्षेप पुराने गुणश्रेणी - निक्षेप से संख्यातगुणा होता है । ( उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक संयतके प्रथम समयसे लेकर ) अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक शेष - शेषमे निक्षेप होता है । अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय मे जो अन्तर्मुहूर्तमात्र निक्षेप होता है, उतना ही अन्तर्मुहूर्त तक रहता है । उससे आगे कदाचित् बढ़ता है, कदाचित् हानिको प्राप्त होता है और कदाचित अवस्थित रहता है । अधः प्रवृत्तकरण के प्रथम समय में गुणसंक्रमण व्यच्छिन्न हो जाता है और सर्व कर्मोंका अधःप्रवृत्त संक्रमण प्रारम्भ होता है । विशेषता केवल यह है कि जिन कर्मोंका विध्यातसंक्रमण होता है उनका विध्यातसंक्रमण ही होता है । अर्थात् जिन प्रकृतियोका बन्ध होता है उनका तो अधःप्रवृत्तकरण होता है और जिन नपुंसकवेदादि अप्रशस्त प्रकृतियोका बन्ध नही होता है उनका विध्यातसंक्रमण होता है । उपशामकके श्रेणी चढ़ते समय अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर सर्वोपशम करके उतरते हुए अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक जो काल है, उससे संख्यातगुणित काल तक लौटता हुआ यह जीव अधःप्रवृत्तकरण के साथ उपशमसम्यक्त्वके कालको बिताता है । अर्थात् उपशमश्रेणीके चढ़ने के प्रथम समयसे लेकर लौटने के अपूर्वकरण- संयत के अंतिम समय के पश्चात् भी अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती अधःप्रवृत्तकरण संयत रहने तक द्वितीयोपशमसम्यक्त्वका काल है ॥ ५३५-५४१॥ चूर्णि सू० [० - इस उपशमसम्यक्त्वकालके भीतर वह असंयमको भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयमको भी प्राप्त हो सकता है और दोनोको भी प्राप्त हो सकता है । छह आवलियोके शेष रहनेपर सासादनसम्यक्त्वको भी प्राप्त हो सकता है । पुनः सासादनको प्राप्त होकर यदि
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इस समस्त सूत्रको इसमे पूर्ववर्ती सूत्रकी टीकामें सम्मिलित कर दिया है । (देखो पृ० १९१५ पंक्ति ११-१२ ) । पर इसके सूत्रत्वकी पुष्टि ताडपत्रीय प्रतिसे हुई है ।