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गा० १२३] पतमान-उपशामक-विशेषक्रिया-निरूपण
३८२. जो उवसामणक्खएण पडिचददि तस्स विहासा । ३८३. केण कारणेण पडिवददि अवहिदपरिणामो संतो। ३८४. सुणु कारणं जधा अद्धाक्खएण सो लोभे पडिवदिदो होइ । ३८५. तं परूवइस्सामो। ३८६. पडमसमयसुहुमसांपराइएण तिविहं लोभमोकड्डियूण संजलणस्स उदयादिगुणसेही कदा । ३८७. जा तस्स किट्टीलोमवेदगद्धा, तदो विसेसुत्तरकालो गुणसेटिणिस्खेवो । ३८८. दुविहस्स लोहस्थ तत्तिओ चेव णिक्खेवो । णवरि उदयावलियाए णत्थि । ३८९. सेसाणमाउगवजाणं कम्माणं गुणसेढिणिक्खेवो अणियट्टिकरणद्धादो अपुवकरणद्धादो च विसेसाहिओ । सेसे सेसे च णिक्खेवो । ३९०. तिविहस्स लोहस्स तत्तियो चेव णिक्खेवो । ३९१. ताधे चेव तिविहो लोभो एगसपएण पसत्थउवसामणाए अणुवसंतो । ३९२ ताधे तिण्हं घादिकल्माणमंतोमुत्तहिदिगो बंधो। ३९३. णामा-गोदाणं हिदिबंधो बत्तीस मुहुत्ता । ३९४ वेदणीयस्स द्विदिवंधो अडदालीस मुहुत्ता । ३७५. से काले गुणसेढी असंखेज्जगुणहीणा ।३९६.हिदिबंधो सो चेव । ३९७ अणुभागबंधो अप्पसत्थाणमणंतगुणो ।३९८.पसत्थाणं कम्मंसाणमणंतगुणहीणो ।
चूर्णिसू०-अब जो उपशमनकालके क्षय हो जानेसे गिरता है, उसकी विभाषा की जाती है ।।३८२॥
शंका-उपशान्तकषायवीतराग छद्मस्थ जीव तो अवस्थित परिणामवाला होता है, फिर वह किस कारणसे गिरता है ? ॥३८३।।।
समाधान-सुनो, उपशान्तकपायवीतरागके गिरनेका कारण उपशमन-कालका क्षय हो जाना है, अतएव वह सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें गिरता है ॥३८४।।।
चूर्णिसू०-अब हम उसकी ( विस्तारसे ) प्ररूपणा करते हैं-प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके द्वारा तीन प्रकारके लोभका अपकर्षण करके संज्वलनकी उदयादि गुणश्रेणी की गई । जो उसके कृष्टिगत लोभके वेदनका काल है, उससे विशेष अधिक कालवाला गुणश्रेणी निक्षेप है। दो प्रकार अर्थात् प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण लोभका भी उतना ही निक्षेप है। विशेष बात यह है कि उनका निक्षेप उदयावलीके भीतर नहीं, किन्तु बाहिर ही होता है। आयुको छोड़कर शेष कर्मों का गुणश्रेणीनिक्षेप अनिवृत्तिकरणके कालसे
और अपूर्वकरणके कालसे विशेष अधिक है। शेष-शेपमें निक्षेप है, अर्थात् इससे आगे उदयावलीके वाहिर ज्ञानावरणादि कर्मोंका गलित-शेषायामरूप गुणश्रेणीनिक्षेप प्रवृत्त होता है । तीन प्रकारके लोभका उतना उतना ही निक्षेप है। उसी समयमें ही तीन प्रकारका लोभ एक समयमें प्रशस्तोपशामनाके द्वारा अनुपशान्त हो जाता है । उस समय तीन घातिया कर्मोंका वन्ध अन्तर्मुहूर्त-स्थितिवाला है। नाम और गोत्रकका स्थितिवन्ध बत्तीस मुहूर्त है
और वेदनीयका स्थितिबन्ध अड़तालीस मुहूर्त है । तदनन्तर कालमे गुणश्रेणी असंख्यातगुणी हीन होती है । स्थितिबन्ध वही होता है। अनुभागवन्ध अप्रशस्त कर्मोंका अनन्तगुणा और प्रशस्त कर्मोंका अनन्तगुणा हीन होता है। (इस प्रकार यह क्रम सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक प्रतिसमय ले जाना चाहिए । ) ॥३८५-३९८॥