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फसाय पाहुड सुत्त
[ १४ चारित्र मोह - उपशामनाधिकार
३७२ अणुवसंतं च केवचिरंति विहासा । ३७३. तं जहा । ३७४ अप्प - सत्थउवसामणाए अणुवसंताणि कम्पाणि णिव्याघादेण अंतोमुहुत्तं ।
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३७५. एत्तो पडिवमाणगस्स विहासा । ३७६. परूवणा-विहासा ताव, पच्छा सुत्तविहासा' । ३७७. परूवणा - विहासा । ३७८. तं जहा । ३७९. दुविहो परिवादो भवक्खएण च उवसामणक्खणं च । ३८०. भवक्खएण पदिदस्स सव्वाणि करणाणि एगसमएण उग्वादिदाणि । ३८१. पढमसमए चेव जाणि उदीरिज्जति कम्पाणि ताणि उदयावलियं पवेसिदाणि, जाणि ण उदीरिज्जंति ताणि वि ओकड्डियूण आवलियबाहिरे गोबुच्छाए सेडीए णिक्खित्ताणि ।
रहती हैं । ( किन्तु व्याघातकी अपेक्षा एक समय भी पाया जाता है । ) ॥३६९-३७१॥ चूर्णिसू० - 'अब कौन कर्म कितनी देर तक अनुपशान्त रहता है' तीसरी गाथाके इस चौथे चरण की विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है - अप्रशस्तोपशामना के द्वारा निर्व्याघातकी अपेक्षा कर्म अन्तर्मुहूर्त तक अनुपशान्त रहते हैं । ( किन्तु व्याघातकी अपेक्षा एक समय तक ही अनुपशान्त रहते है | ) || ३७२-३७४॥
चूर्णिसू०
[0 - अव इससे आगे प्रतिपतमान अर्थात् उपशम श्रेणी से गिरनेवाले जीवकी विभाषा की जाती है । पहले प्ररूपणा - विभाषा करना चाहिए, पीछे सूत्र - विभाषा करना चाहिए ।। ३७५-३७६॥
प्ररूपणा - विभापा, दूसरी सूत्र
विशेषार्थ - विभाषा दो प्रकारकी होती है- एक विभाषा । जो सूत्रके पदोका उच्चारण न करके सूत्र - द्वारा सूचित विस्तारसे प्ररूपणा की जाती है, उसे प्ररूपणा - विभापा कहते हैं
किये गये समस्त अर्थकी
।
जो गाथा - सूत्रके अवयव -
भूत पदो के अर्थका परामर्श करते हुए सूत्र - स्पर्श किया जाता है, उसे सूत्र- विभापा कहते हैं । चूर्णिसू० - यहाॅ पहले प्ररूपणा - विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है - प्रतिपात दो प्रकार से होता है - भवक्षयसे और उपशमनकालके क्षयसे । भवक्षयसे गिरनेवाले जीवके सभी करण एक समय में ही उद्घाटित हो जाते हैं, अर्थात् अपने-अपने स्वरूपसे पुनः प्रवृत्त हो जाते हैं । प्रतिपातके प्रथम समयमे ही जो कर्म उदीरणाको प्राप्त किये जाते है, वे सब उद्यावलीमे प्रवेश कराये जाते हैं । जो कर्म उदीरणाको प्राप्त नही कराये जाते हैं, वे भी अपकर्षण करके उद्यावलीके बाहिर गोपुच्छारूप श्रेणीसे निक्षिप्त किये जाते हैं ॥ ३७७-३८१ ॥
१ विहासा दुविहा होदि परूवणविहासा सुत्तविहासा चेदि । तत्थ परूवणविहासा णाम मुत्तपदाणि अणुच्चारिय सुत्तसूचिदासेसत्थस्स वित्थरपरूवणा । सुत्तविहासा णाम गाहासुत्ताणमवयवत्थपरामरसमुहेण मुत्तफासो | जयध०
२ तत्थ भवक्खयणिवघणो णाम उवसग सेढि सिहरमा रूढस्स तत्येव झीणाउअस्स काल काढूण क्साये पडिवादो | जो उण सते वि आउए उवसामगढाखएण कसाएस पडिवदिदो सो उवसामणक्खयणिवघणो णाम । नयध०
३ अप्पप्पणी सरूवेण पुणो वि पयदाणि त्ति भणिदं होइ । जयध०