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गा० १२३ ।
उपशम-अनुपशमयोग्य-कर्म-निरूपण
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३०७, उवसामो कस्स कस्स कम्मस्सेत्ति विहासा । ३०८. तं जहा । ३०९. मोहणीयवज्जाणं कम्माणं णत्थि उवसामो । ३१०. दंसणमोहणीयस्स वि णत्थि उवसामो 1 ३११. अनंताणुबंधीणं पि णत्थि उवसामो । ३१२ बारसकसाय - णवणोकसायवेदणीयाणमुवसामो ।
३१३. 'कं कम्मं उवसंत अणुवसंतं च कं कम्मं' त्तिविहासा । ३१४. तं जहा । ३१५. पुरिसवेदेण उवदिस्स पढमं ताव णवुंसयवेदो उवसमेदि । सेसाणि कम्माणि अणुवसंताणि । ३१६. तदो इत्थवेदो उवसमदि । ३१७. तदो सत्त णोकसाए उवये दो करण अनुपशान्त रहते है, इसलिए कुछ करणोके उपशम होनेसे और कुछ करणोके अनुपशम होनेसे इसे देशकरणोपशामना कहते हैं । अथवा इसका ऐसा भी अर्थ किया जाता है कि उपशमश्र ेणीपर चढ़नेवाले जीवके अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय मे अप्रशस्तोपशामना, निधत्ति और निकाचित ये तीन करण अपने-अपने स्वरूपसे विनष्ट हो जाते हैं और अपकर्षण आदि करण होते रहते है, इसलिए इसे देशकरणोपशामना कहते है । अथवा नपुंसकवेद प्रदेशायोका उपशमन करते हुए जब तक उसका सर्वोपशम नहीं हो जाता है, तब तक उसका नाम देशकरणोपशामना है । अथवा वह भी अर्थ किया गया है कि नपुंसकत्रेदके उपशान्त होने और शेष करणोके अनुपशान्त रहनेकी अवस्था - विशेषको देशकरणोपशामना कहते है | किन्तु जयधवलाकारका कहना है कि यहॉपर पूर्वोक्त अर्थ ही प्रधानरूपसे ग्रहण करना चाहिए । सर्व करणो के उपशमनको सर्वकरणोपशामना कहते है । अर्थात् उदीरणा, निधत्ति, निकाचित आदि आठो करणोका अपनी-अपनी क्रियाओको छोड़कर जो प्रशस्तोपशामना के द्वारा सर्वोपशम होता है, उसे सर्वकरणोपशामना कहते हैं । कपायोके उपशमनका प्रकरण होनेसे प्रकृतमें यही सर्वकरणोपशामना विवक्षित है ।
चूर्णिसू०- - अब 'किस किस कर्मका उपशम होता है' इस पदकी विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है - मोहनीयको छोड़कर शेष सात कर्मों का उपशम नहीं होता है । दर्शनमोहनीयकर्मका भी उपशम नहीं होता है । ( क्योकि, वह उपशमश्र ेणीपर चढ़नेके पूर्व उपशान्त या क्षीण हो चुका है ।) अनन्तानुबन्धी कषायकी चारों प्रकृतियोका भी उपशम नहीं होता है । ( क्योंकि, उपशमश्रेणीपर चढ़ने से पहले ही उनका विसंयोजन किया जा चुका है । ) किन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कपाय और हास्यादि नव नोकषाय वेदनीय, इन इक्कीस प्रकृतियोका उपशम होता है । ( क्योकि, चारित्रमोहोपशमनाधिकारमे इन्हीं के उपशमसे प्रयोजन है ।) ॥३०७ - ३१२॥
चूर्णि सू०. ० - अब 'कौन कर्म उपशान्त होता है और कौन कर्म अनुपशान्त रहता है, प्रथम गाथाके इस उत्तरार्धकी विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है - पुरुषवेदके उदय के साथ उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके सबसे पहले नपुंसकवेद उपशमको प्राप्त होता है ।
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'अणुवसंताणि' के स्थानपर 'अणुवसमाणि' पाठ है । (देखो पृ० १८७६)