________________
गा० १२३ ]
चारित्र मोह - उपशामक- विशेषक्रिया निरूपण
६८१
वि अधापवत्तकरणस्स लक्खणं जं पुव्वं परूविदं । २७ तदो अधापवत्तकरणस्स चरिमसमये इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ । २८. तं जहा । २९. कसायउवसामणपटुवगस्स ० ( १ ) । ३०. काणि वा पुव्वबद्धाणि० ( २ ) । ३१. के अंसे झीयदे ० ( ३ ) | ३२. किं द्विदियाणि० (४) । ३३. एदाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासियण तदो अपुव्वकरणस्स पढमसमए [ इमाणि आवासयाणि ] परूवेदव्वाणि ।
३४. जो खीणदंसणमोहणिज्जो कसाय-उवसामगो तस्स खीणदंसणमोहणिज्जस्स कसाय उचसामणाए अपुव्यकरणे पढमट्टि दिखंडयं णियमा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । ३५. द्विदिबंघेण जमोसरदि सो विपलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । ३६. असुभाणं कम्माणमणंता भागा अणुभागखंडयं । ३७. ट्ठिदिसंतकम्म मंतोकोडाकोडीए, ट्ठिदिबंधो वि अंतोकोडाकोडीए । ३८. गुणसेढी च अंतोमुहुत्तमेत्ता
1
ये चार सूत्रगाथाएँ प्ररूपण करना चाहिए । वे इस प्रकार हैं- " कषायोका उपशम करनेवाले जीवका परिणाम कैसा होता है ? किस योग, कषाय और उपयोग में वर्तमान, किस लेश्यासे युक्त और कौनसे वेदवाला जीव कषायोका उपशम करता है ( १ ) । कषायो के उपशमन करनेवाले जीवके पूर्व-बद्ध कर्म कौन - कौनसे है और अब कौन - कौनसे नवीन कर्माशोको बाँधता है । कषायोके उपशामकके कौन-कौन प्रकृतियाँ उदद्यावलीमे प्रवेश करती हैं और कौन-कौन प्रकृतियोकी वह उदीरणा करता है ? ( २ ) । कषायोके उपशमनकालसे पूर्व बन्ध अथवा उदयकी अपेक्षा कौन-कौनसे कमांश क्षीण होते है ? अन्तरको कहॉपर करता है और कॉपर तथा किन कर्मोंका यह उपशम करता है ? (३) । कषायोका उपशमन करनेवाला जीव किसकिस स्थिति अनुभागविशिष्ट कौन - कौनसे कर्मोंका अपवर्तन करके किस स्थानको प्राप्त करता है और अवशिष्ट कर्म किस स्थिति और अनुभागको प्राप्त होते हैं ?" ( ४ ) । इन चारो सूत्रगाथाओकी पूर्वके समान ही यहॉपर सम्भव विशेषताओंके साथ विभाषा करके तत्पश्चात् अपूर्वकरण के प्रथम समयमे ये वक्ष्यमाण स्थितिकांडक आदि आवश्यक कार्य होते हैं । उनमेंसे पहले स्थितिकांडकका प्रमाण बतलाते हैं ॥ २५-३३॥
चूर्णिसू० - जो क्षीणदर्शनमोहनीय पुरुष कषायोका उपशामक होता है, उस क्षीणदर्शनमोहनीय पुरुष के कषाय-उपशामना के अपूर्वकरणकालमे प्रथम स्थितिकांडकका प्रमाण नियमसे पल्योपमका संख्यातवाँ भाग होता है । स्थितिबन्धके द्वारा जो अपसरण करता है, वह भी पल्योपमका संख्यातवा भाग होता है। अनुभागकांडकका प्रमाण अशुभ कर्मोंके अनन्त बहुभागप्रमाण है । उस समय स्थितिसत्त्व अन्तः कोडाकोडी सागरोपम है और स्थितिवन्ध भी अन्त:कोडाकोडी सागरोपम' है, तथा गुणश्रेणी अन्तर्मुहूर्तमात्र निक्षिप्त करता है । तत्पश्चात् अनुताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'मेत्तणिक्खित्ता' ऐसा पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ० १८२० )
f,
८६