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गा० १२३ ]
चारित्र मोह उपशामक - विशेषक्रिया निरूपण
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१९५. अंतरकदादो पाए छण्णोकसायाणं पदेसग्गं ण संछुहृदि पुरिसवेदे, कोहसंजलणे संहृदि । १९६. जो पढमसमय अवेदो तस्स पडमसमय- अवेदस्स संत पुरिसवेदस्स दो आवलियबंधा दुसमयूणा अणुवसंता । १९७. जे दो आवलियबंधा दुसमणा अणुवसंता तेसिं पदे सग्गमसंखेज्जगुणाए सेडीए उवसामिज्जदि । १९८. परपयडीए वुण अधापवत्तसंक्रमेण संकामिज्जदि । १९९. पढमसमय-अवेदस्स संका मिज्जदि बहुअं । से काले विसेसहीणं । २००. एस कमो एयसमयपबद्धस्स चेव ।
२०१. परमसमय अवेदस्स संजलणाणं ठिदिबंधो बत्तीस वस्त्राणि अंतोमुहुत्तूविशेषार्थ-द्वितीय स्थिति के प्रदेश का प्रथमस्थितिमे आना 'आगाल' कहलाता है
और प्रथमस्थिति के प्रदेशाय के द्वितीयस्थितिमें जानेको प्रत्यागाल कहते हैं । इसप्रकार उत्कर्षणअपकर्षणके वसे प्रथम - द्वितीय स्थिति के प्रदेशायोका परस्पर विषय- संक्रमण होनेरूप आगाल -, प्रत्यागाल पुरुपवेदकी प्रथमस्थितिके समयाधिक दो आवलीकाल शेष रहने तक ही होते है । जब पूरा दो आवलीकाल पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिका अवशिष्ट रह जाता है, तब आगाल और प्रत्यागालका होना बन्द हो जाता है, ऐसा अभिप्राय यहाॅ जानना चाहिए । अथवा उत्पादानुच्छेदका आश्रय लेकर जयधवलाकार सूत्रानुसार ऐसा भी अर्थ करनेकी प्रेरणा करते हैं कि आवली-प्रत्यावली काल तक तो आगाल - प्रत्यागाल होते हैं, किन्तु तदनन्तर समयमें उनका विच्छेद हो जाता है । इसी स्थलपर पुरुषवेदकी गुणश्रेणीका होना भी बन्द हो जाता है । केवल प्रत्यावलीसे ही असंख्यात समयप्रबद्ध की प्रतिक्षण उदीरणा होती है ।
१० - अन्तर करने के
चूर्णिसू० पश्चात् हास्यादि छह नोकपायोके प्रदेशात्र को पुरुषवेदमे संक्रमण नही करता है, किन्तु संज्वलनक्रोधमे संक्रमण करता है । ( क्योकि, यहाॅ आनुपूर्वी संक्रमण पाया जाता है । ) जो प्रथम - समयवर्ती अपगतवेदवाला जीव है, उस प्रथम समयवाले अपगतवेदीके पुरुषवेदका नवक समयप्रबद्धरूप सत्त्व दो समय कम दो आवली - प्रमाण है, वह यहाँ अनुपशान्त रहता है । जो दो समय कम दो आवली -प्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहते हैं, उनके प्रदेशामको वह यहॉपर असंख्यातगुणित श्रेणीके द्वारा उपशान्त करता है । अर्थात् बन्धावलीके अतिक्रांत होनेपर पुरुषवेदके नवीन बद्ध समयप्रबद्धो का उपशमन - काल आवलीमात्र है, ऐसा अभिप्राय यहाँ जानना चाहिए । वह उनके प्रदेशाको स्वस्थानमें ही उपशान्त नहीं करता है, किन्तु अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा पर - प्रकृति अर्थात् संज्वलनक्रोधमे संक्रमण करता है । ( क्योकि पुरुपवेदके द्रव्यका संक्रमण अन्यत्र हो ही नहीं सकता है । ) प्रथमसमयवर्ती अपगतवेदी जीवके संक्रमण किया जानेवाला प्रदेशा बहुत है और तदनन्तरकालमें विशेष हीन है । यह क्रम एक समयप्रबद्धका ही है | ( क्योकि नाना समयप्रबद्धकी विवक्षामे वृद्धि हानिके योगसे चतुर्विध वृद्धि और चतुर्विध हानिरूप भी क्रम देखा जाता है | ) ॥१९५-२००॥
चूर्णिसू०--प्रथमसमयवर्ती अपगतवेदीके चारो संज्वलन कपायोका - स्थितिबन्ध
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