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गा० १२३.]
चारित्र मोह - उपशामक - विशेष क्रिया निरूपण
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परम-विदियकिट्टीसु च संकामिज्जदे' । १५१. मायाए विदियकिट्टीदो तम्हि आवलि - यादितं माया तदिकिट्टीए लोभस्स च पढम - विदियकिडीसु संकामिज्जदि । १५२. लोभस विदिट्टीदो तम्हि आवलियादिकंतं लोभस्स तदियकिट्टीए संका मिज्जदि । १५३. एदेण कारणेण समयपबद्धो छसु आवलियासु गदासु उदीरिज्जदे |
१५४. जहा एवं पुरिसवेदस्स समयपवद्धादो छसु आवलियासु गदासु उदीरणा ति कारणं निदरिसिद, वहा एवं सेसाणं कम्माणं जदि वि एसो विधी णत्थि, तहा वि अंतरादो परमसमयकदादा पाए जे कम्मंसा बज्झति तेर्सि कम्माणं छसु आवलियासु गदासु उदीरणा । १५५. एदं णिदरिसणमेत्तं तं प्रमाणं कादु णिच्छयदो गेण्हियव्वं । १५६. अंतरादो परमसमयकदादा पाए कुंसय वेदस्स आउत्तकरण उवसामगो
किया जाता जाता है । वह कर्म - प्रदेशाम यहाँ पर भी इस संक्रमणावलीमात्र कालतक उदीरणाके अयोग्य है | अतः इस चौथी आवलीके भीतर भी उसकी उदीरणा नहीं हो सकती है । वही पूर्वोक्त पुरुषवेदका संक्रान्त कर्म - प्रदेशात्र उक्त कृष्टियोमे एक आवली तक रहकर पुनः मायाकी द्वितीय कृष्टिसे मायाकी तृतीय कृष्टिमें और संज्वलन लोभकी प्रथम द्वितीय कृष्टिमे संक्रान्त किया जाता है । उसकी यहाँ पर भी एक आवली कालतक उदीरणा नहीं हो सकती । यह पॉचवी आवली उदीरणाके अयोग्य है । पुरुष - वेदका वही संक्रान्त हुआ कर्म-प्रदेशाग्र उक्त कृष्टियोंमे एक आवली तक रहकर पुन: लोभ
द्वितीय कृष्ट लोभकी तीसरी कृष्टिमे संक्रान्त किया जाता है । वह यहाँ पर भी एक आवली तक उदीरणाके योग्य नहीं होता । अतः यह छठी आवली भी उदीरणाके अयोग्य बतलाई गई है । इस कारण नवीन बँधा हुआ समयप्रबद्ध छह आवलियोके व्यतीत होनेपर उदीरणाको प्राप्त किया जाता है । अतएव यह कहा गया है कि छह आवलियोके व्यतीत होनेपर ही उदीरणा होती है ।। १४५ - १५३ ॥
चूर्णिसू० - जिस प्रकार से पुरुपवेदकी नवीन बँधे हुए समयप्रबद्धसे छह आवलियोंके व्यतीत हो जानेपर उदीरणा होती है, इस विषयका सकारण निदर्शन किया, उस ही प्रकारसे यद्यपि शेप कर्मोंके संक्रमणादिकी यह विधि नहीं है, तथापि प्रथम समय किये गये अन्तरसे इस स्थलपर जो कर्म-प्रकृतियॉ बँधती हैं, उन कर्म-प्रकृतियोंकी उदीरणा छह आवलियोके व्यतीत होनेपर ही होती है, ऐसा नियम है । यह उपर्युक्त वर्णन निदर्शन अर्थात् दृष्टान्तमात्र है, सो उसे प्रमाण मानकर निश्चयसे यथार्थ रूपमे ग्रहण करना चाहिए । १५४ - १५५॥
चूर्णिसू० - अन्तरकरणके प्रथम समयसे लेकर इस स्थल तक अर्थात् अन्तर्मुहूर्त
१ एसो चउत्थावलियविसयो । जयघ०
२ किमा उत्तकरण णाम ? आउत्तकरणमुजत्तकरण पारभकरणमिदि एयट्ठो । तात्पर्येण नपु सकवेदमितः प्रभवत्युपशमयतीत्यर्थः । जयघ
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इससे आगे 'सिस्समइ वित्थारणङ्कं इतना टोकाश भी सूत्ररूपसे मुद्रित है । (देखो पृ० १८४२)