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फसाय पाहुड सुत्त [१४ चारित्रयोद-उपशामनाधिकार पढमसमयकदादो पाए जाणि कम्माणि बझंति मोहणीयं वा मोहणीयवन्जाणि वा, ताणि कम्माणि छसु आवलियासु गदासु सक्काणि उदीरेदूं ऊणिगासु छसु आवलियासु ण सक्काणि उदीरेदु। १४४. एसा छसु आचलियासु गदासु उदीरणा त्ति सण्णा ।
१४५. केण कारणेण छसु आवलियासु गदासु उदीरणा भवदि ? १४६. णिदरिसणं*। १४७. जहा णाम वारस किट्टीओ भवे पुरिसवेदं च बंधइ, तस्स जं पदेसग्गं पुरिसवेदे बर्द्ध ताव आवलियं अच्छदि'। १४८. आवलियादिकं कोहस्स पढमकिट्टीए विदियकिट्टीए च संकामिज्जदि। १४९. विदियकिट्टीदो तम्हि आवलियादिकंतं तं कोहस्स तदियकिट्टीए च माणस्स पढम-विदियकिट्टीसु च संकामिज्जदि । १५०. माणस्स विदियकिट्टीदो तम्हि आवलियादिकंतं माणस्स च तदियकिट्टीए मायाए आवलीप्रमाण कालके अतिक्रान्त होनेपर ही उदीरणा करनेके लिए शक्य है, उस प्रकार अन्तर करनेके प्रथम समयसे लेकर इस स्थल तक मोहनीय या मोहनीयके अतिरिक्त जो कर्म बंधते हैं, वे कर्म छह आवलीप्रमाण कालके व्यतीत होनेपर ही उदीरणा करनेके लिए शक्य हैं, छह आवलियोमे कुछ न्यूनता होनेपर उदीरणाके लिए शक्य नहीं हैं। यह 'छह आवलियोके व्यतीत होनेपर उदीरणा होती है' ऐसा कहनेका अभिप्राय है ॥१४२-१४४॥
शंका-किस कारणसे छह आवलियोके व्यतीत होनेपर ही उदीरणा होती है ? इसके पूर्व उदीरणा होना क्यो सम्भव नहीं है ? ॥१४५॥
समाधान-इस शंकाका समाधानात्मक निदर्शन इस प्रकार है-जिस वारह कृष्टिवाले भवमें जो पुरुपवेदको वॉधता है, उसके जो प्रदेशाग्र पुरुपवेदमे बद्ध हुआ है, वह एक आवलीकाल तक अचलरूपसे रहता है। अर्थात् यह एक आवली स्वस्थानमे ही उदीरणावस्थासे परान्मुख प्राप्त होती है। उक्त वन्धावलीकालके अतिक्रान्त होनेपर पुरुषवेदके बद्ध प्रदेशाग्रको संज्वलनक्रोधकी प्रथम कृष्टि और द्वितीय कृष्टिमें संक्रान्त करता है, अतएव वहॉपर वह कर्म-प्रदेशाय संक्रमणावलीमात्र काल तक अविचलितरूपसे अवस्थित रहता है, इसलिए यह दूसरी आवली उदीरणा-पर्यायसे विमुख उपलब्ध होती है। वह पुरुपवेदका संक्रान्त प्रदेशाग्र संज्वलनक्रोधकी प्रथम या द्वितीय कृष्टिमे एक आवली तक रहकर तत्पश्चात् द्वितीय कृष्टिसे क्रोधकी तृतीय कृष्टिमें और संज्वलनमानकी प्रथम और द्वितीय कृष्टिमें संक्रान्त किया जाता है, अतः यह संक्रमणरूप तीसरी आवली भी उदीरणाके अयोग्य है। पुरुपवेदका वह संक्रान्त प्रदेशाग्र एक आवली तक वहाँ रहकर पुनः मानकी द्वितीय कृष्टिसे मानकी तृतीय कृष्टिमें, तथा संज्वलन मायाकी प्रथम और द्वितीय कृष्टिमे संक्रान्त
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इससे आगे 'छसु आवलियासु गदासु उदीरणा त्ति' इतना टीकाश भी सूत्ररूप से मुद्रित है। (देखो पृ० १८४०-४१)
१ एसा ताव एका आवलिया उदीरणावत्यापरमुही समुवलम्भदे | जयध० २ तम्हा एसा विदिया आवलिया उदीरणपज्जायविमुही समुवलभदि । जयध० ३ एसो तदियावलियविसयो दट्ठव्यो । जयघ०