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कसाय पाहुड सुत [ १४ चारित्र मोह - उपशामनाधिकार
८४. तदो अण्णो द्विदिबंधो णामा-गोदाणं थोवो । ८५. इदरेसिं चदुण्हं पि कम्माणं विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ८६. मोहणीयस्स विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ८७. देण कमेण द्विदिबंध सहस्त्राणि बहूणि गदाणि । ८८. तदो अण्णो द्विदिबंधो णामागोदाणं थोवो । ८९. मोहणीयस्स द्विधिबंधो असंखेज्जगुणो । ९० णाणावरणीय दंसणावरणीय वेदणीय - अंतराइयाणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । ९१. एकसराहेण मोहणीयस्स द्विदिबंधो णाणावरणादि- द्विदिवधादो हेडदो जादो असंखेज्जगुणहीणो च । णत्थि अण्णो वियप्पो । ९२. जाव मोहणीयस्स द्विदिबंधो उवरि आसी, ताव असंखेज्जगुणो आसी, असंखेज्जगुणादोक असंखेज्जगुणहीणो जादो । ९३. तदो जो एसो ट्ठिदिबंधो णामा-गोदाणं थोत्रो । ९४. मोहणीयस्स ट्ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । ९५. इदरेसिं चदुहं पि कम्पाणं द्विदिबंधो तुल्लो असंखेज्जगुणो ।
९६. एदेण अप्पाचहुअविहिणा विदिबंधसहस्साणि जाये वहूणि गदाणि । ९७. तो अण्णो द्विदिबंधो एकसराहेण मोहणीयस्स थोवो । ९८. णामा-गोदाणमसंतत्पश्चात् ज्ञानावरणादि कर्मोंका दूरापकृष्टिनामक स्थितिबन्ध प्राप्त होनेपर तदनन्तर उसके असंख्यात बहुभाग स्थितिबन्धरूपसे अपसरण करनेवाले जीवके उस समय में संभव अल्पबहुत्वको कहते हैं
चूर्णिसू० - तदनन्तर अन्य प्रकारका स्थितिवन्ध होता है । नाम और गोत्रकर्मका सबसे कम स्थितिबन्ध होता है । इससे चारो ही कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे मोहनीयका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इस क्रमसे बहुतसे स्थितिबन्ध-सहस्र व्यतीत होते हैं । तत्पश्चात् अन्य प्रकारका स्थितिबन्ध होता है । यथा - नाम और गोत्र - कर्मका सबसे कम स्थितिबन्ध होता है । इससे मोहनीयक र्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुण होता है । इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तरायकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । तत्पश्चात् एक शराघात से अर्थात् एक साथ मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध ज्ञानावरणादि कर्मों के स्थितिबन्धसे नीचे आजाता है और वह ज्ञानावरणादि कर्म चतुष्कके स्थितिवन्धसे असंख्यातगुणित हीन होता है, इसमें कोई अन्य विकल्प संभव नहीं है । जब तक मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध ज्ञानावरणादिके स्थितिबन्धसे ऊपर था, तब तक वह असंख्यात - गुणा था । इसलिए यहॉपर वह असंख्यात गुणित वृद्धिसे असंख्यातगुणित हीन हो गया है । तब यहाँ जो स्थितिबन्ध होता है, वह इस प्रकार है - नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सवसे कम है । इससे मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे इतर शेष चारो ही कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा है ॥ ८४-९५॥
चूर्णिसू० ० - इस अल्पवहुत्व के क्रमसे जिस समय अनेको स्थितिवन्ध सहस्र व्यतीत होते हैं उसके पश्चात् अन्य प्रकारका स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है । वह इस प्रकार है - मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध एक शराघातसे अर्थात् एकदम सबसे कम हो जाता है । इससे
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमे ‘असंखेज्जादो' पाठ मुद्रित है । (देखो पृ० १८२९)