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गा० १२३ ]
चारित्रमोह - उपशामना -स्वरूप-निरूपण
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(६७) पडिवादो च कदिविधो हि कसायम्हि होइ पडिवदिदो । केसिं कम्मंसाणं पडिवदिदो बंधगो होइ ॥ १२० ॥ (६८) दुविहो खलु परिवादो भवक्खयादुवसमक्खयादो दु । सुहुमे च संपराए बादररागे च बोद्धव्वा ॥ १२१ ॥ (६९) उवसामणाखण दु पडिवदिदो होइ सुहुमरागम्हि ।
बादररागे णियमा भवक्खया होई परिवदिदो ॥ १२२ ॥ (७०) उवसामणाक्खण दु अंसे बंधदि जहाणुपुव्वीए ।
एमेव यवेदयदे जाणुपुव्वीय कम्मंसे ॥ १२३ ॥
३. चरित्तमोहणीयस्स उवसामणाए पुव्वं गमणिज्जा उवक्कमपरिभासा । ४. चारित्रमोहनीयकर्मका उपशम करनेवाले जीवका प्रतिपात कितने प्रकारका होता है, वह प्रतिपात सर्वप्रथम किस कषायमें होता है ? वह गिरते हुए किन-किन कर्म प्रकृतियों का बन्ध करनेवाला होता है ? || १२० ॥
वह प्रतिपात दो प्रकारका होता है एक भवक्षयसे और दूसरा उपशमकाल के क्षयसे । तथा वह प्रतिपात सूक्ष्मसाम्परायनामक दशवें गुणस्थानमें और बादरराग नामक नर्वे गुणस्थान में होता है; ऐसा जानना चाहिए ॥ २२९ ॥
उपशमकालके क्षय होनेसे जो प्रतिपात होता है वह सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में होता है । किन्तु भवक्षयसे जो प्रतिपात होता है, वह नियमसे बादरसाम्परायनामक नर्वे गुणस्थान में ही होता है ॥ १२२ ॥
उपशमकालके क्षय होने से गिरनेवाला जीव यथानुपूर्वीसे कर्म-प्रकृतियों को बाँधता है । तथा इसी प्रकार यथानुपूर्वीसे कर्म- प्रकृतियोंका वेदन भी करता है ( किन्तु भवक्षय से गिरनेवाले जीवके देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही सर्व करण प्रकट हो जाते हैं (८) ॥१२३॥
विशेषार्थ - उपशामना - अधिकार में उपयुक्त आठ गाथाऍ निबद्ध हैं । इनमें से प्रारम्भकी चार गाथाएँ तो चारित्रमोहनीय कर्मकी उपशमनावस्थाका क्रमशः वर्णन करनेके लिए पृच्छासूत्ररूप हैं, जिनका समाधान आगे चूर्णिसूत्रोके आधारपर विस्तारसे किया जायगा | अन्तिम चार गाथाएँ ग्यारहवें गुणस्थानसे गिरनेवाले जीवकी अवस्थाका वर्णन करती हैं । उनमे से प्रथम गाथासे किये गये प्रश्नोका शेष तीन गाथाओंमें उत्तर दिया गया है । आठो गाथाओंसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा आगे चूर्णिकार स्वयं ही करेंगे ।
चूर्णिस० - चारित्रमोहनीयकी उपशामनामे पहले उपक्रम - परिभाषा जानने योग्य है । वह इस प्रकार है-वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुवन्धी कपायचतुष्कके विसंयोजन किये बिना