________________
गा० २२ ] स्थितिक-खामित्व-निरूपण
२३९ वड्डिदो । ३४. तिस्से हिदीए णिसेयस्स उक्कस्सपदं । ३५. जा जहणिया आवाहा अंतोमुहुत्तुत्तरा एवदिसमय-अणुदिण्णा सा द्विदी। तदो जोगहाणाणमुवरिल्लमद्धंगदो ३६. दुसमयाहिय-आवाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए एयसमयाहिय-आवाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए च उक्कस्सयं जोगमुववण्णो । ३७. तस्स उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं । ३८. णिसेयद्विदिपत्तयं पि उकस्सयं तरसेव ।
३९. उदयट्ठिदिपत्तयमुक्कस्सयं कस्स ? ४०. गुणिदकम्मंसिओ संजमासंजमगुणसेढिं संजमगुणसेटिं च काऊण मिच्छत्तं गदो जाधे गुणसेढीसीसयाणि उदिण्णाणि ताधे मिच्छत्तस्स उक्स्सयमुदयविदिपत्तयं । ४१. एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं पि । ४२. णवरि उक्कस्सयमुदयविदिपत्तयमुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियभंगो । ४३. अणंजो अन्तर्मुहूर्त-अधिक जघन्य आवाधा है, इतने समय तक वह स्थिति अनुदीर्ण थी, अर्थात् उदयको प्राप्त नहीं हुई थी। तदनन्तर वह नारकी योगस्थानोके ऊपरी अर्धभागको प्राप्त हुआ, अर्थात् यवमध्यके ऊपर जाकर अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहा । पुनः उस स्थितिके दो समय अधिक आबाधाके अन्तिम समयमे अनुदीर्ण होनेपर और एक समय अधिक आवाधाके अन्तिम समयमे अनुदीर्ण होनेपर वह उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ। ऐसे उस नारकीके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिको प्राप्त प्रदेशाग्र होता है। तथा उसीके ही निषेकस्थितिको प्राप्त उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ॥ ३१-३८ ॥
भावार्थ-जो जीव सातवे नरकमें उत्पन्न हुआ, लघु अन्तर्मुहूर्तसे पर्याप्त हुआ, स्व-योग्य योगस्थानोसे निरन्तर परिणत हुआ, संख्यात गुणवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि इन दो वृद्धियोसे बढ़ा, योगवृद्धिसे योगस्थानोके यवमध्यभागको प्राप्त होकर वहाँ अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहा । जब दो समय और एक समय अधिक आवाधाका चरम समय आया, तव उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ, ऐसे जीवके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट यथानिपेकस्थितिक प्रदेशाग्र होता है और इसी नारकीके ही उत्कृष्ट निपेकस्थितिक प्रदेशाग्र पाया जाता है।
शंका-मिथ्यात्वका उदयस्थितिको प्राप्त उत्कृष्ट प्रदेशाग्र किसके होता है ? ॥३९॥
समाधान-जो गुणितकर्माशिक जीव संयमासंयमगुणश्रेणीको और संयमगुणश्रेणीको करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। उसके जिस समय गुणश्रेणीशीर्पक उदयको प्राप्त हुए उस समय उसके मिथ्यात्वका उदयस्थितिको प्राप्त उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ॥ ४० ॥
चूर्णिसू०-इसी प्रकारसे अर्थात् मिथ्यात्वके समान ही सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अग्रस्थिति-प्राप्त, यथानिपेकस्थिति-प्राप्त आदिके स्वामित्वको जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि इन दोनो प्रकृतियोके उत्कृष्ट उदयस्थिति-प्राप्त प्रदेशाग्रका स्वामित्व उदयकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षीणस्थितिक प्रदेशाग्रके स्वामित्वके समान है। अनन्तानुवन्धी चतुष्क, आठ मध्यम कपाय और हास्यादि छह नोकपायोके उत्कृष्ट अग्रस्थिति आदिको प्राप्त प्रदेशाग्रका स्वामित्व मिथ्यात्वके स्वामित्वके समान जानना चाहिए ॥ ४१-४३ ॥