________________
गा० ५८ ]
प्रदेशसंक्रम-अर्थपद-निरूपण
४२३
संक्रामेदित्ति ओक्काविदे बहुदरपदेससंकमादो एस अप्पयरसंकमो' । २६१. ओसक्का विदेह च तत्तिगे चेव पदेसे संकामेदित्ति एस अवदिसंकमो' । २६२. असंकमादो संकामेदि ति अवतव्यकमो ।
२६३. देण अट्ठपदेण तत्थ समुक्कित्तणा । २६४. मिच्छत्तस्स भुजगारअप्पर अवदि-अवतव्व-संकामया अस्थि । २६५. एवं सोलसकसाय- पुरिसवेद-भयदुर्गुणं । २६६. एवं चेव सम्मत्त सम्मामिच्छत्त इत्थि- बुंसय वेद-हस्स-रह- अरइसोगाणं । २६७. णवरि अवद्विदसं कामगा णत्थि ।
समय में बहुतर प्रदेशका संक्रमण करके वर्तमान समय में अल्पतर प्रदेशोका संक्रमण करता है, यह अल्पतरसंक्रमण है । अनन्तर - व्यतिक्रान्त समयमे जितने प्रदेशका संक्रमण किया है, वर्तमान समयमे' भी उतने ही प्रदेशोका संक्रमण करता है, यह अवस्थितसंक्रमण है । अनन्तर-व्यतिक्रान्त समयमें कुछ भी संक्रमण न करके वर्तमान समय में संक्रमण करता है, यह अवक्तव्यसंक्रमण है । इस अर्थपदके द्वारा भुजाकारसंक्रमणकी पहले समुत्कीर्तना की जाती है - मिथ्यात्व के भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अव्यक्तव्य संक्रामक होते है 1 इसी प्रकार सोलह कपाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके चारो प्रकारके संक्रामक होते है । इस ही प्रकार सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अर और शोकप्रकृतियों के संक्रामक जानना चाहिए । विशेषतया केवल यह है कि इनके अवस्थितसंक्रामक नहीं होते है ।। २५८-२६७ ।।
१ अय सूत्रार्थः - इदानोमल्पतरकान् प्रदेशान् सक्रमयतीत्ययमल्पतरसक्रमः । कुतोऽल्पतरत्वमिदानीतनस्य प्रदेशसक्रमस्य विवक्षितमिति चेदनन्तरातिक्रान्तसमय सम्बन्धि बहुतर प्रदेशसक्रम विशेपादिति । जयध० २ अनन्तरव्यतिक्रान्तसमये साम्प्रतिके च समये तावन्त एव प्रदेशानन्यूनाधिकान् सकामयतीत्यतोऽ वस्थितसक्रम इत्युक्तं भवति । जयध०
३ पूर्वमस क्रमादिदानीमेव सक्रमपर्यायमभूतपूर्वमा स्कन्दतीत्यस्या विवक्षायामवत्त व्यसक्रमस्यात्मलाभ इत्युक्त मवति । अस्य चावक्तव्यव्यपदेशोऽवस्थात्रयप्रतिपादकैरभिलापैरनभिलाप्यत्वादिति । जयध०
४ त जहा - अट्ठावीससतक म्मियमिच्छाइट्टिणा वेदगसम्मत्ते पडिवण्णे पढमसमये मिच्छत्तस्स विज्झादेणावत्तन्वसकमो होइ । पुणो विदियादिसमएस मुजगारसकमो अवट्ठिदसकमो अप्पयरसकमो होइ जाव आवलियसम्माइदिउत्ति । तत्तो उवरि सव्वत्थ वेदयसम्माइट्रिट्ठम्मि अप्पयरसकमो जाव दसणमोहक्खवणाए अपुव्वकरण पविट्ठस्स गुणसकमपारभो त्ति । गुणसकमविसए सव्वत्थेव मुजगारसकमो दट्ठव्वो । उवसमसम्मत पडिवण्णस्स वि पढमसमए अवत्तव्वसकमो, विदियादिसमएस भुजगारसकमो जाव गुणसकमचरिमसमयति । तदो विज्झादस कमविषए सव्वत्थ अप्पयरसकमो त्ति घेत्तन्व | जयध०
५ जत्थागमादो णिजरा थोवा, तत्थ भुजगारसकमो, जत्थागमादो णिजरा बहुगी, एयतणिजरा चैव वा, तत्थ अप्पयरसको । जम्हि विसए दोन्हें पि सरिसभावो, तहि अवदितकमो । असकमादो सकमो जत्थ, तत्थावत्तव्वसकमो त्ति पुव्व व सव्वमेत्थाणुगतव्व । णवरि अवत्तव्वसकमो वारसकसाय पुरिसवेद भयदुगु छाण सव्वोवसामणापडिवादे, अणताणुवधीण च विसजोयणा अपुव्वस जोगे दट्ठव्वो । जयघ०