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गा० ६९ ]
कषायोदयस्थान- यवमध्य-निरूपण
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मसंखेजा भागा अविरहिदा । २८९. एदेहि देहिं उवदेसेहिं कसाय-उदयङ्काणाणि वेदव्वाणि तसाणं । २९० तं जहा । २९१. कसायुदयडाणाणि असंखेज्जा लोगा' । २९२. तेसु जत्तिया तसा तत्तियमेत्ताणि आण्णाणि । .
२९३. कसायुदट्ठाणेसु जवमज्झेण जीवा रांति । २९४ . जहण्णए कसायुदाणे तसा थोबा' । २९५ विदिए वितत्तिया चैत्र । २९६. एवमसंखेज्जेसु लोगट्ठाणेसु तत्तिया चेव । २९७. तदो पुणो अण्णम्हि ढाणे एक्को जीवो अन्महिओ । २९८६ तदो पुण असखेज्जेसु लोगेसु द्वाणे तत्तिया चेव । २९९ तदो अण्णम्हि ट्ठाणे एको जीवो अन्महिओ । ३००. एवं गंतूण उक्कस्सेण जीवा एकहि कुाणे आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
चूर्णिसू० 10- वह इस प्रकार है- कपायोके उदयस्थान असंख्यात लोकप्रमाण है । उनमें जितने त्रस जीब है, उतने कषायोदयस्थान त्रस जीवोसे आपूर्ण है ।। २९० २९२॥
विशेपार्थ - असंख्यात लोकोके जितने प्रदेश है उतने त्रसजीवोके कपायोदयस्थान होते है । उनमें से एक- एक कपायोदयस्थानपर एक-एक त्रसजीव रहता है, यह अवस्था किसी काल-विशेषमे ही संभव है, क्योकि उत्कर्षसे आवली के असंख्यातवे भागमात्र ही कषायोदयस्थान बस जीवोसे भरे हुए पाये जाते हैं, ऐसा उपदेश है, यह जयधवलाकार कहते है । अतः प्रस्तुत सूत्रका ऐसा अर्थ लेना चाहिए कि सान्तर या निरन्तर क्रमसे सजीवोका जितना प्रमाण है उतने कपायोदयस्थान त्रस जीवोंसे सदा भरे हुए पाये जाते हैं । यह कथन वर्तमान कालकी अपेक्षा जानना चाहिए ।
अब अतीत कालकी अपेक्षासे कषायोदयस्थानोपर जीवोके अवस्थान-क्रमको बतलाने के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं -
चूर्णि० - अतीतकालकी अपेक्षा कपायोदयस्थानोपर त्रस जीव यवमध्यके आकार से रहते हैं । उनमे जघन्य कपायोदयस्थानपर त्रस जीव सबसे कम रहते हैं । दूसरे कषायोदयस्थानपर भी त्रस जीव उतने ही रहते है । इस प्रकार लगातार असख्यात लोकमात्र स्थानोपर जीव उतने ही रहते हैं । तदनन्तर पुनः आगे आनेवाले स्थानपर एक जीव पूर्वोक्त प्रमाणसे अधिक रहता है । तदनन्तर पुनः असंख्यात लोकप्रमाण कपायोदय-स्थानोपर इतने ही जीव रहते है । तत्पश्चात् प्राप्त होनेवाले अन्य स्थानपर एक जीव अधिक रहता है । इस प्रकार एक-एक जीव बढ़ते हुए जानेपर उत्कर्षसे एक कषायोदयस्थानपर आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रस जीव पाये जाते है ॥२९३-३००॥
१ असखेजाग लोगाण जत्तिया आगासपदेसा अस्थि, तत्तियमेत्ताणि चेव कसाबुदयट्ठाणाणि होति त्ति भणिद होइ । जयध०
२ कुदो ? सव्वजहणस किलेसेण परिणममाणजीवाण बहूणमणुत्रलभादो | जयध०
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'जीवहिं उचजोगद्धड्डाणामसंखेज्जा भागा अविरहिदा' इतने सूत्रांशको टीकामें सम्मिलित कर दिया है ( देखो पृ० १६६१ ) । पर इस भशकी सूत्रता टीका से ही प्रमाणित होती है ।
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