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कसाय पाहुड सुत्त [११ दर्शनमोह-क्षपणाधिकार ३. पच्छा सुत्तविहासा' । तत्थ ताव पुवं गमणिज्जा परिहासी । ४. तं जहा। ५. तिण्हं कम्माणं द्विदीओ ओट्टिदव्याओ । ६. अणुभागफद्दयाणि च ओट्टियव्याणि । ७. तदो अण्णमधापवत्तकरणं परमं, अपुव्यकरणं विदियं, अणियट्टिकरणं तदियं । ८. एदाणि ओट्टेदण अधापवत्तकरणस्स लक्षणं भाणियव्यं । ९. एवमपुव्यकरणस्स वि, अणियट्टिकरणस्स वि । १०. एदेसि लक्षणाणि जारिसाणि उवसामगस्स, तारिसाणि चेव ।
११.अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ परूवेयवाओ। १२. तं जहा । १३. दंसणमोहक्खवगस्स०१ । १४. काणि वा पुव्यवद्धाणि०२ । १५.
चूर्णिसू०-इस प्रकार गाथासूत्रोंकी समुत्कीर्तनाके पश्चात् सर्व-प्रथम सूत्रोकी विभाषा अर्थात् पदच्छेद आदिके द्वारा अर्थकी परीक्षा करना चाहिए। उसमें भी पहले परिभापा जानने योग्य है ॥३॥
विशेपार्थ-गाथासूत्रमे निवद्ध या अनिबद्ध प्रकृतोपयोगी समस्त अर्थ-समुदायको लेकर उसके विस्तारसे वर्णन करनेको परिभापा कहते हैं। . चूर्णिसू०-वह परिभाषा इस प्रकार है-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन तीनों कर्मोंकी स्थितियाँ पृथक्-पृथक् स्थापित करना चाहिए। तथा उन्हीं तीनो कर्मोंके अनुभाग-स्पर्धक भी तिरछी रचनारूपसे स्थापित करना चाहिए। तत्पश्चात् प्रथम अधःप्रवृत्तकरण, द्वितीय अपूर्वकरण और तृतीय अनिवृत्तिकरण, इनके समयोकी क्रमशः रचना करना चाहिए। इन तीनोकी रचना करके सर्वप्रथम अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण कहना चाहिए । इसीप्रकार अपूर्वकरणका और अनिवृत्तिकरणका भी लक्षण कहना चाहिए। इन तीनो करणोके लक्षण जिस प्रकारसे दर्शनमोहके उपशामककी प्ररूपणामें कहे है, उसीप्रकारसे यहॉपर भी जानना चाहिए ॥४-१०॥
चूर्णिसू०-अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमे ये चार सूत्र-गाथाएँ प्ररूपण करना चाहिए। वे इस प्रकार है-"दर्शनमोहके क्षपण करनेवाले जीवका परिणाम कैसा होता है, किस योग, कषाय और उपयोगमे वर्तमान, किस लेश्यासे युक्त और कौनसे वेदवाला जीव दर्शनमोहका क्षपण करता है ? (१) दर्शनमोहके क्षपण करनेवाले जीवके पूर्व-बद्ध कर्म कौनकौनसे हैं और अब कौन-कौनसे नवीन कांशोको वॉधता है । दर्शनमोह-क्षपणके कौन-कौन प्रकृतियाँ उदयावलीमें प्रवेश करती हैं और कौन-कौन प्रकृतियोंकी वह उदीरणा करता है ? (२)। दर्शनमोहके क्षपण-कालसे पूर्व वन्ध अथवा उदयकी अपेक्षा कौन-कौनसे काश क्षीण होते हैं ? अन्तरको कहॉपर करता है और कहॉपर तथा किन कर्मोंका यह आपण
१ का सुत्तविहासा णाम ? गाहासुत्ताणमुच्चारणं कादण तेसिं पदच्छेदाहिमुहेण जा अस्थपरिक्सा सा सुत्तविहासा त्ति भण्णदे । २ सुत्तपरिहासा पुण गाहासुत्तणिबद्धमणिबद्ध च पयदोवजोगि जमत्यजाद ते सव्व घेतण वित्थरदो अत्यपरूषणा । ३ हिदि पडि तिरिच्छेण विरचेयन्वाणि | जयध०