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कसाय पाहुड सुत्त [१२ संयमासंयमलब्धि-अर्थाधिकार भागहीणेण हिदि बंधदि । जे सुभा कम्मंसा ते अणुभागेहि अणंतगुणेहिं बंधदि । जे असुहकम्मंसा, ते अणंतगुणहीणेहिं* बंधदि ।
८. विसोहीए तिव्व-मंदं वत्तइस्सामो। ९. अधापवत्तकरणस्स जदोप्पहुडि विसुद्धो तस्स पडमसमए जहणिया विसोही थोवा । १०. विदियसमए जहणिया विसोही अणंतगुणा । ११. तदियसमए जहणिया विसोही अणंतगुणा । १२. एवमंतोमुहुत्तं जहणिया चेव विसोही अणंतगुणेण गच्छइ । १३. तदो पढमसमए उक्कस्सिया विसोही अणंतगुणा। १४ सेस-अधापवत्तकरणविसोही जहा दंसणमोह-उवसामगस्स अधापवत्तकरणविसोही तहा चेव कायव्वा ।
अनुभागसत्त्वको द्विस्थानीय करते हैं। तत्पश्चात् अधःप्रवृत्तकरण नामकी अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्ध होता है । यहॉपर न स्थितिकांडकघात होता है और न अनुभागकांडकघात होता है । ( न गुणश्रेणी होती है । ) केवल स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन स्थितिबन्धके द्वारा नवीन कर्मोंकी स्थितिको बॉधता है । जो शुभ कर्मरूप प्रकृतियाँ हैं, उन्हें अनन्तगुणित अनुभागोके साथ वॉधता है और जो अशुभ कर्मरूप प्रकृतियाँ हैं, उन्हे अनन्तगुणित हीन अनुभागोके साथ बॉधता है ॥३-७॥
चूर्णिसू०-अव संयमासंयमलब्धिको प्राप्त करनेवाले जीवके विशुद्धिकी तीव्र-मन्दता कहते हैं-अधःप्रवृत्तकरणके जिस समयसे विशुद्ध हुआ है, उसके प्रथम समयमें जघन्य विशुद्धि सबसे कम है । उससे द्वितीय समयमे जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है । उससे तृतीय समयमे जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त तक जघन्य विशुद्धि ही अनन्तगुणित क्रमसे बढ़ती जाती है । इसके पश्चात् अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । शेष अधःप्रवृत्तकरण-सम्बन्धी विशुद्धियाँ, जिस प्रकार दर्शनमोहोपशामकके अधःप्रवृत्तकरणमे वतलाई गई हैं, उसी प्रकारसे यहॉपर भी उनका निरूपण करना चाहिए ।। ८-१४॥
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'अणंतगुणहीणहि' इस पाठके स्थानपर 'अणंतगुणेहिं [ हीणा-] ऐसा पाठ मुद्रित है । ( देखो पृ०.१७७८)
' ताम्रपत्रवाली प्रतिमें सूत्राक १४ के अनन्तर निम्नलिखित चार सूत्र और मुद्रित हैं'सनमासजम पडिवज्जमाणस्स परिणामो केरिसो भवे १ । [जोगे कसाय उवजोगे लेस्सा वेदो य को हवे ॥-] काणि वा पुव्ववद्धाणि० २ [ के वा अंसे णिवधदि । कदि आवलिय पविसति कदिण्ह वा पवेसगो 1-] के असे झीयदे पुव्व० ३ [वधेण उदएण वा । अंतरं वा कहिं किच्चा के के खवगो कहिं ||~] किं ठिदियाणि कम्माणि० ४ [अणुभागेसु केसु वा | ओवट्टिदूण सेसाणि कं ठाण पडिवजदि' |-]
इस उद्धरणमें कोष्ठकान्तर्गत पाठको सम्पादकने अपनी ओरसे पूर्व-निर्दिष्ट गाथासूत्रोंके अनुसार जीडा है। शेष अंश टीकाका अंग है। जो कि प्रकृत स्थलपर उद्धरणके रूपसे निर्दिष्ट किया गया है।
(देखो पृ० १७७९)।