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गा० ११५] . अधःप्रवृत्तसंयत-स्वरूप-निरूपण आणीदो संजमासंजमं पडिवज्जइ, तस्स वि णत्थि द्विदिघादो वा अणुभागधादो वा । ३०. जाव संजदासंजदो ताव गुणसेहिं समए समए करेदि । ३१. विसुझंतो असंखेज्जगुणं वा संखेज्जगुणं वा संखेज्जभागुत्तरं असंखेज्जभागुत्तरं वा करेदि । संकिलिस्संतो एवं चेव गुणहीणं वा विसेसहीणं वा करेदि । ३२. जदि संजमासंजमादो पडिवदिदूण आगुंजाएं' मिच्छत्तं गंतूण तदो संजमासंजमं पडिवज्जइ, अंतोमुडुत्तेण वा, विपक?ण तो फिर भी वह विशुद्धिरूप परिणामोके योगसे लघु अन्तर्मुहूर्त के द्वारा वापिस आकर संयमासंयमको प्राप्त हो जाता है । उस समय भी उसके स्थितिघात या अनुभागघात नहीं होता है । (क्योकि, उस समय अधःप्रवृत्तादि करणोका अभाव रहता है । ) जब तक वह संयतासंयत है, तब तक समय-समय गुणश्रेणीको करता है । विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ वह असंख्यातगुणित, संख्यातगुणित, संख्यात भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक (द्रव्यको अपकर्षित कर अवस्थित गुणश्रेणीको ) करता है। संक्लेशको प्राप्त होता हुआ वह इस ही प्रकारसे असंख्यातगुणहीन, संख्यातगुणहीन अथवा विशेषहीन गुणश्रेणीको करता है ॥२८-३१॥
विशेषार्थ-स्वस्थानसंयतासंयतका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्ष कम एक पूर्वकोटी वर्ष है। यदि कोई जीव संयमासंयमको ग्रहण करनेके पश्चात् उत्कृष्ट काल तक संयतासंयत बना रहता है, तो भी उसके प्रति समय असंख्यातगुणी निर्जरा होती रहती है । हॉ, इतना भेद अवश्य हो जाता है कि जब वह उक्त समयके भीतर जितने काल तक जैसी हीनाधिक विशुद्धिको प्राप्त होगा, तब उतने समय तक उसके तदनुसार असंख्यातगुणित, संख्यातगुणित या विशेष अधिक कर्मनिर्जरा होगी। इसी प्रकार जब वह तीव्र या मन्द संक्लेशको प्राप्त होगा, तब उसके तदनुसार असंख्यातगुणहीन, संख्यातगुणहीन या विशेषहीन कर्म-निर्जरा होगी। परन्तु सम्पूर्ण संयतासंयत-कालमें ऐसा कोई समय नहीं है, जब कि उसके हीनाधिक रूपसे कर्मनिर्जरा न होती रहे । कहनेका सारांश यह है कि संयतासंयतके उस उत्कृष्ट या यथासंभव अनुत्कृष्ट कालके भीतर सर्वदा विशुद्धि या संक्लेशके निमित्तसे षड् गुणी हानि या वृद्धि होती रहती है। अतएव उसके अनुसार ही सूत्रोक्त चार प्रकारकी वृद्धि या हानिको लिए हुए कर्म-निर्जरा भी होती रहती है। संयतासंयतका कोई भी समय कर्म-निर्जरासे शून्य नही होता है। गुणश्रेणीका आयाम सर्वत्र अवस्थित एक सहश ही रहता है, इतना विशेष जानना चाहिए।
चूर्णिसू०-यदि कोई जीव आगुञ्जासे अर्थात् अन्तरङ्गमे अति संक्लेशसे प्रेरित होनेके कारण संयमासंयमसे गिरकर और मिथ्यात्वको प्राप्त होकर तत्पश्चात् अन्तर्मुहर्तकालसे
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'विसुझंतो वि' पाठ है । (देखो पृ० १७८३). १ आगुजनमागुजा, संक्लेशभरेणातराघूर्णनमित्यर्थः । जयध०