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कसाय पाहुड सुन्त [ १२ संयमासंयमलब्धि- अर्थाधिकार
- २२. तदो से काले पडमसमयसंजदासंजदो जादो । २३. ताधे अपुव्वं द्विदिखंडयमपुव्वमणुभागखंडयमपुव्वं द्विदिबंधं च पटुवेदि । २४. असंखेज्जे समयपबद्ध ओकड्डियूण गुणसेडीए उदयावलियबाहिरे रचेदि । २५. से काले तं चैव डिदिखंडयं, तं चैव अणुभागखेडयं सो चेव ट्ठिदिबंधो । गुणसेढी असंखेज्जगुणा । २६ गुणसेटि - णिक्खेवो अवदिगुणसेढी तत्तिगो चेव । २७. एवं ठिदिखंडएस बहुए गदेसु तदो अधापवत्तसंजदासंजदो' जायदे |
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२८. अधापवत्तसंजदासंजदस्त ठिदिघादो वा अणुभागधादो वा णत्थि । २९. जदि संजमासजमादो परिणामपच्चएण णिग्गदो, पुणो वि परिणामपच्चएण अंतोमुहुत्तेण
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चूर्णिसु० - तदनन्तर कालमे वह प्रथम समयवर्ती संयतासंयत हो जाता है । उस समय वह अपूर्व स्थितिकांडकघात, अपूर्व अनुभागकांडकघात और अपूर्व स्थितिबन्धको आरम्भ करता है । तथा असंख्यात समयप्रवद्धोका अपकर्षण कर उदद्यावली के बाहिर गुणश्रेणीको रचता है । उसके अनन्तर समयमे वही पूर्वोक्त स्थितिकांडकघात होता है, वही अनुभागकांडकघात होता है और वही स्थितिवन्ध होता है । केवल गुणश्रेणी असंख्यातगुणी होती है । गुणश्रेणीनिक्षेप और अवस्थित गुणश्रेणी उतनी ही अर्थात् पूर्व - प्रमाण ही रहती है । इस प्रकार बहुतसे स्थितिकांडकघातोंके व्यतीत होनेपर तत्पश्चात् उक्त जीव अधःप्रवृत्त संयतासंयत होता है ।। २२-२७॥
विशेषार्थ - संयमासंयमको ग्रहण करनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे बढ़ता हुआ, सहस्रो स्थितिकांडकघात, अनुभागक और स्थितिबन्धापसरणोको करता हुआ यह जीव एकान्तानुवृद्धिसे वृद्धिंगत संयतासंयत कहलाता है । क्योकि संयतासंयत होनेके प्रथम समयसे लेकर इस समय तक उसके एकान्तसे अर्थात् निश्चयतः अविच्छिन्नरूपसे प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होती रहती है । इस अन्तर्मुहूर्त - कालके पूरा होनेपर वह विशुद्धिताकी वृद्धिसे पतित हो आता है, अतः उसे अधःप्रवृत्त - संयतासंयत कहते हैं । इसीका दूसरा नाम स्वस्थान संयतासंयत भी है । अधःप्रवृत्तसंयतासंयतकी दशामें वह स्वस्थान- प्रायोग्य अर्थात् पंचम गुणस्थानके योग्य संक्लेश और विशुद्धिको भी प्राप्त करता है, ऐसा यहाॅ अभिप्राय जानना चाहिए |
चूर्णिम् ० - अधःप्रवृत्त - संयतासंयतके स्थितिघात या अनुभागघात नहीं होता है । वह यदि संक्लेश परिणामोके योगसे संयमासंयमसे गिर जाय, अर्थात् असंयत हो जाय,
१ एतदुक्त भवति स जमास जसग्गणपढमसमयप्प हुडि जाव अतोमुहुत्तचरिमसमयाति ताव पडिसमयमणतगुणाए विसोहीए ड्ढमाणो हिदि- अणुभागखड्य- द्विदिवधोसरणसहस्साणि कुणमाणो तदवत्थाए एतावदसजदासजदो त्ति भण्णदे । एहि पुण तक्कालपरिसमत्तीए सत्थाणविसोहीए पदिदो अधापवत्तसंजदासंजदन्रवएसारिहो जादोत्ति । अधापवत्तसंजदासजदो त्ति वा सत्थाणसजदासजदो त्ति वा एयो । तदो पत्तो पाए सत्याणपाओग्गाओ सकिलेस विसोहीओ समयाविरोहेण परावत्तेदुमेसो लहदि चि घेत्तव्वं ।
जयघ०