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गा० ११५ ।
संयत- अनुभागकांडकादि - अल्पबहुत्व-निरूपण
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स्सियाओ इच्चेवमादीणि पदाणि । २० सव्वत्थोवा जहण्णिया अणुभागखंड य-उक्कीरणद्धा । २१. सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । २२. जहण्णिया डिदिखंडय उक्कीरणद्धा ठिदिबंधगद्धा च दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ । २३. तेसिं चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । २४. पडमसमयसंजदमादिं काढूण जं कालमेयंताणुवड्डीए वढदि, एसा अद्धा संखेज्जगुणा । २५. अपुव्यकरगद्धा संखेज्जगुणा । २६. जहणिया संजमद्धा संखेज्जगुणा । २७. गुणसेढिणिक्खेवो संखेज्जगुणो । २८. जहणिया आवाहा संखेज्जगुणा । २९. उक्कस्सिया आवाहा संखेज्जगुणा । ३० जहण्णयं द्विदिखंडयम संखेज्जगुणं । ३१. अपुण्यकरणस्सं पढमसमए जहण्णडिदिखंडयं संखेज्जगुणं । ३२ पलिदोवमं संखेज्जगुणं । ३३. पढमस्स विदिखंडयस्स विसेसो सागरोवमपुधत्तं संखेज्जगुणं । ३४. जहण्णओ ट्ठिदिबंधों संखज्जगुणो । ३५. उकस्सओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो ३६. जहणयं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । ३७. उकस्सयं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं ।
३८. संजमादो णिग्गदो असंजमं गंतूण जो द्विदिसंतकस्मेण अणवड्ढि देण
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इत्यादि । अनुभागकांडकका जघन्य उत्कीरणकाल वक्ष्यमाण पदोकी अपेक्षा सबसे कम है । इससे इसीका, अर्थात् अनुभागकांडकका उत्कृष्ट उत्कीरणकाल विशेष अधिक है । स्थिति - कांडकका जघन्य उत्कीरणकाल और स्थितिबन्धका जघन्य काल, ये दोनो परस्परमे तुल्य और पूर्वोक्त पद संख्यातगुणित हैं । इनसे इन्हीं दोनो के उत्कृष्टकाल विशेष अधिक हैं । इससे प्रथम समयवर्ती संयतको आदि लेकर जिस कालमें एकान्तानुवृद्धिसे बढ़ता है, वह काल संख्यातगुणित है । इससे अपूर्वकरणकाल संख्यातगुणित है । इससे जघन्य संयमकाल संख्यातगुणित है । इससे गुणश्रेणीनिक्षेप संख्यातगुणित है । इससे जघन्य आबाधा संख्यातगुणित है । इससे उत्कृष्ट आबाधा संख्यातगुणित है । इससे जघन्य स्थितिकांड क असंख्यातगुणित है । इससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमे संभव जघन्य स्थितिकांडक संख्यातगुणित है । इससे पल्योपम संख्यातगुणित है । इससे प्रथमस्थितिकांकका सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण विशेष संख्यातगुणित है । इससे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणित है । इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणित है । इससे जघन्य स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है और इससे उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है ॥ १७-३७॥
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चूर्णिस् ० - जो जीव संयमसे निकलकर और असंयमको प्राप्त होकर यदि अवस्थित या अवर्धित स्थितिसत्त्वके साथ पुनः संयमको प्राप्त होता है तो संयमको प्राप्त होनेवाले उस जीवके न अपूर्वकरण होता है, न स्थितिघात होता है और न अनुभागघात होता है ।
វ छताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'अणुवढिदेण' पाठ मुद्रित है (देखो पृ० १८०० ) । पर अर्थकी दृष्टिसे वह अशुद्ध है ।
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