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फसाय पाहुड सुप्त [१३ संयमलन्धि-अर्थाधिकार पुणो संजमं पडिवज्जदि तस्स संजमं पडिवज्जमाणगस्स पत्थि अपुव्यकरणं, णत्थि द्विदिघादो, णत्थि अणुभागधादो।
३९. एत्तो चरित्तलद्धिगाणं जीवाणं अट्ठ अणिओगद्दाराणि । ४०. तं जहा । संतपरूवणा दव्वं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भागाभागो अप्पाबहुअंच अणुगंतव्वं । ४१. लद्धीए तिव्य-मंददाए सामित्तमप्पावहु च । ४२. एत्तो जाणि हाणाणि ताणि तिविहाणि । तं जहा-पडिवादट्ठाणाणि उप्पादयट्ठाणाणि लद्धिट्ठाणाणि ३ । ४३. पडिवादहाणं णाम [ जहा ] जम्हि हाणे मिच्छत्तं वा असंजमसम्मत्तं वा संजमासंजमं वा गच्छइ तं पडिवादहाणं । ४४. उप्पादयट्ठाणं णाम जहा जम्हि हाणे संजमं पडिवज्जइ तमुप्पादयट्ठाणं णाम । ४५. सव्याणि चेव चरित्तट्ठाणाणि लट्ठिाणाणि । ( किन्तु जो जीव संयमसे निकलकर संक्लेशके भारसे मिथ्यात्वसे अनुविद्ध असंयतपरिणामको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्तसे या विप्रकृष्ट अन्तरकालसे पुनः संयमको प्राप्त होता है उसके पूर्वोक्त दोनों ही करण होते हैं और उसी प्रकार स्थितिघात और अनुभागघात होते हैं। ) ॥३८॥
चूर्णिसू०-अब इससे आगे चारित्रलब्धिको प्राप्त होने वाले जीवोंके सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्ररूपणा, क्षेत्रप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, कालप्ररूपणा, भागाभाग और अल्पबहुत्व ये आठ अनुयोगद्वार अनुगन्तव्य अर्थात् जानने योग्य हैं। चारित्रलब्धिकी तीव्रता और मन्दताके परिज्ञानके लिए स्वामित्व और अल्पबहुत्व भी ज्ञातव्य हैं ॥३९-४१॥
विशेषार्थ-संयमलब्धि दो प्रकारकी होती है-उत्कृष्ट संयमलब्धि और जघन्य संयम'लब्धि । कषायोके तीव्र अनुभागके उदयसे उत्पन्न होनेवाली मंद विशुद्धिसे युक्त लब्धिको जघन्य संयमलब्धि कहते हैं । कषायोके मन्दतर अनुभागसे उत्पन्न हुई विपुलतर विशुद्धिसे युक्त लब्धिको उत्कृष्ट संयमलब्धि कहते हैं । इनमेसे जघन्य संयमलब्धि सर्व-संक्लिष्ट तथा अनन्तर समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले अन्तिमसमयवर्ती संयतके होती है । उत्कृष्ट संयमलब्धि सर्व विशुद्ध स्वस्थानसंयतके होती है। किन्तु सर्वोत्कृष्ट संयमलब्धि तो उपशान्तमोही या क्षीणमोही जीवोके होती है । इस प्रकार तीव्र-मंद चारित्रलब्धिके स्वामित्वका वर्णन किया । अव उनका अल्पबहुत्व कहते हैं-जघन्य लब्धिस्थान सबसे कम हैं। इससे उत्कृष्ट लब्धिस्थान अनन्तगुणित हैं, क्योकि जघन्य लब्धिस्थानसे असंख्यात लोकमान षट्स्थानपतित लब्धिस्थान ऊपर जाकर उत्कृष्ट लब्धिस्थानकी उत्पत्ति होती है।
चूर्णिसू०-इससे आगे जो संयम लब्धिस्थान हैं, वे तीन प्रकारके हैं-प्रतिपातस्थान, उत्पादकस्थान और लव्धिस्थान । ( ३ ) उनमेसे पहले प्रतिपातस्थानको कहते हैं-जिस लब्धिस्थानपर स्थित जीव मिथ्यात्वको, अथवा असंयमसम्यक्त्वको, अथवा संयमासंयमको प्राप्त होता है, वह प्रतिपातस्थान है । अत्र उत्पादकस्थानका स्वरूप कहते हैं-जिस स्थानपर जीव संयमको प्राप्त होता है, वह उत्पादकस्थान है। इसीको प्रतिपद्यमानस्थान भी कहते हैं। सर्व ही चारित्रस्थानोंको लब्धिस्थान कहते हैं ॥४२-४५॥