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कसाय पाहुड सुत्त [११ दर्शनमोह-क्षपणाधिकार (५८) मिच्छत्तवेदणीए कम्मे ओवट्टिदम्मि सम्मत्ते ।
खवणाए पट्ठवगो जहण्णगो तेउलेस्साए ॥१११॥ (५९) अंतोमुहुत्तमद्ध दंसणमोहस्स णियमसा खवगो ।
खीणे देव-मणुस्से सिया वि णामाउगो बंधो ॥११२॥ __ मिथ्यात्ववेदनीयकर्मके सम्यक्त्वप्रकृतिमें अपवर्तित अर्थात् संक्रमित कर देने पर जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक कहलाता है । दर्शनमोहकी क्षपणाके प्रस्थापकको जघन्य तेजोलेश्यामें वर्तमान होना चाहिए ॥१११॥
विशेषार्थ-दर्शनमोहकी क्षपणा करनेको उद्यत हुए जीवके 'प्रस्थापक' संज्ञा कब प्राप्त होती है, इस बातके वतलानेके लिए इस गाथासूत्रका अवतार हुआ है । दर्शनमोहकी क्षपणाके लिए उद्यत जीव जब मिथ्यात्वप्रकृतिके सर्व द्रव्यको सम्यग्मिध्यात्वमे संक्रमण कर देता है और उसके पश्चात् जब सम्यग्मिथ्यात्वके सर्व द्रव्यको सम्यक्त्वप्रकृतिमे संक्रमण करता है, तब उसे 'प्रस्थापक' यह संज्ञा प्राप्त होती है । गाथासूत्रमें सम्यग्मिथ्यात्वके पृथक् उल्लेख न होनेका कारण यह है कि मिथ्यात्वके संक्रान्त द्रव्यको अपने भीतर धारण करनेवाले सम्यग्मिथ्यात्वको ही यहॉपर 'मिथ्यात्ववेदनीय' नामसे कहा गया है। यद्यपि अधःप्रवृत्त करणके प्रथम समयसे ही 'प्रस्थापक' संज्ञा प्रारंभ हो जाती है, तथापि यहाँ अन्तदीपककी अपेक्षा उक्त संज्ञाका निर्देश समझना चाहिए, अर्थात् यहॉतक वह प्रस्थापक कहलाता है। गाथाके चतुर्थ चरण-द्वारा लेश्याका विधान किया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि तीनों शुभ लेश्याओमे वर्तमान जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारंभ करते हैं। यदि कोई अत्यन्त मंद विशुद्धिवाला जीव भी दर्शनमोहका क्षपण प्रारंभ करे तो उसे भी कमसे कम तेजोलेश्याके जघन्य अंशमै तो वर्तमान होना ही चाहिए, क्योकि कृष्णादि अशुभ लेश्याओंमें क्षपणाका प्रारम्भ सर्वथा असंभव है।
अन्तर्मुहर्तकाल तक दर्शनमोहका नियमसे क्षपण करता है । दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर देव और मनुष्यगति-सम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंका और आयुकर्मका स्यात् बन्ध करता है और स्यात् वन्ध नहीं भी करता है ॥११२॥
विशेषार्थ-इस गाथाके पूर्वाधसे यह सूचित किया गया है कि दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपणाका काल अन्तर्मुहूर्त ही है, न इससे कम है और न अधिक है । गाथाके उत्तरार्धसे यह सूचित किया गया है कि दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर वह किन-किन कर्मप्रकृतियोंका वन्ध करता है। दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर यदि वह तिथंच या मनुष्यगतिमें वर्तमान है, तो देवगति-सम्बन्धी ही नामकर्मकी प्रकृतियोका तथा देवायुका वन्ध करता है । और यदि वह देव या नरकगतिमे वर्तमान है, तो मनुष्यगति-सम्बन्धी ही नामकर्मकी प्रकृतियोंका तथा मनुष्यायुका वन्ध करता है। गाथा-पठित 'स्यात्' पदसे यह सूचित किया गया है