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कसाय पाहुड सुत्त , [१० सम्यक्त्व-अर्थाधिकार (५६) सम्मामिच्छाइट्ठी सागारो वा तहा अणागारो।
अध वंजणोग्गहम्मि दु सागारो होइ बोद्धव्यो (१५)॥१०९॥ ___ १३८. एसो सुत्तप्फासो विहासिदो। १३९. तदो उत्सयसम्माइटि-वेदयसम्माइट्ठि-सम्मापिच्छाइट्टीहिं एयजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं अप्पाबहुअं चेदि । १४०. एदेसु अणियोगदारेसु वण्णिदेसु दंसणमोहउवसामणे त्ति समत्तमणियोगद्दारं ।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव साकारोपयोगी भी होता है और अनाकारोपयोगी भी होता है। किन्तु व्यंजनावग्रहमें, अर्थात् विचारपूर्वक अर्थको ग्रहण करनेकी अवस्थामें साकारोपयोगी ही होता है, ऐसा जानना चाहिए ॥१०९॥
विशेषार्थ-जयधवलाकारने इस गाथाके पूर्वार्धके दो अर्थ किये हैं। प्रथम तो यह कि कोई भी जीव साकारोपयोगसे भी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है और अनाकारोपयोगसे भी । इसके लिए दर्शनमोहके उपशमन करनेवाले जीवके समान साकारोपयोगी होनेका एकान्त नियम नहीं है। दूसरा अर्थ यह किया है कि सम्यग्मिथ्यात्व-गुणस्थानके कालके भीतर दोनो ही उपयोगोंका परावर्तन संभव है, जिससे एक यह अर्थ-विशेष सूचित होता है कि छद्मस्थके ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके कालसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका काल अधिक होता है । गाथाके उत्तरार्ध-द्वारा इस वातको प्रकट किया गया है कि जब वही सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव विचार-पूर्वक तत्त्व-ग्रहण करनेके अभिमुख हो, तब उस अवस्थामें उसके साकारोपयोगका होना आवश्यक है, क्योकि पूर्वापर-परामर्शसे शून्य सामान्यमात्रके अवग्राहक दर्शनोपयोगसे तत्व-निश्चय नहीं हो सकता है। चूर्णिकारने इस अन्तिम गाथाके अन्तमे (१५) का अंक स्थापित किया है, जो यह प्रकट करता है कि सम्यक्त्वके इस दर्शनमोहोपशमना अर्थाधिकारमें पन्द्रह ही सूत्रगाथाएँ हैं, हीन या अधिक नहीं है।
चूर्णिस०--इस प्रकार यह गाथासूत्रोका स्पर्श अर्थात् स्वरूप-निर्देश प्ररूपण किया । तदनन्तर उपशमसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्याष्टि विषयक एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और अल्पबहुत्व, इतने अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं। इन अनुयोगद्वारोके वर्णन कर दिये जानेपर 'दर्शनमोह-उपशामना' नामका अनुयोगद्वार समाप्त हो जाता है ॥१३८-१४०॥
भावार्थ-उपशमसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोका स्वामित्व, काल आदि सूत्र-प्रतिपादित अनुयोगद्वारोसे विशेप अनुगम करना आवश्यक है, तभी प्रकृत विषयका पूर्ण परिज्ञान हो सकेगा । अतएव विशेष जिज्ञासु जनोको परमागमके आधार. से उनका विशेप निर्णय करना चाहिए। इस प्रकार सम्यक्त्व-अर्थाधिकारमे दर्शनमोह-उपशामना नामक
दशवां अर्थाधिकार समाप्त हुआ।