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मा० १०८ ]
उपशामक - विशेषस्वरूप-निरूपण
(५४) सम्माइट्ठी सहदि पवयणं णियमसा दु उवइटुं । सहदि सम्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा ॥१०७॥ (५५) मिच्छाइट्टी णियमा उवइट्टं पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असम्भावं उवइटुं वा अणुवइटुं ॥ १०८ ॥
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या मिध्यादृष्टि जीवके एक भी प्रकृतिका संक्रमण नहीं होता है । इसलिए दो प्रकृतियो की सत्ता रखनेवाले जीवके भी भजनीयता सिद्ध हो जाती है । जिस सम्यग्दृष्टि या मिध्यादृष्टि जीवके क्षपणा या उद्वेलनाके वशसे एक ही सम्यक्त्वप्रकृति या मिथ्यात्वप्रकृति अवशिष्ट रही है, वह संक्रमणकी अपेक्षा भजनीय नहीं है, क्योकि वहाँ संक्रमण - शक्तिका अत्यन्त अभाव माना गया है, इसलिए वह असंक्रामक ही होता है, ऐसा कहा गया है ।
सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो नियमसे श्रद्धान करता ही है, किन्तु कदाचित अज्ञानवश सद्भुत अर्थको स्वयं नहीं जानता हुआ गुरुके नियोगसे असद्भूत अर्थका भी श्रद्धान करता है ॥ १०७॥
विशेषार्थ - प्रकर्ष या अतिशययुक्त वचनको प्रवचन कहते हैं । प्रवचन, सर्वज्ञो - पदेश, परमागम और सिद्धान्त, ये सब एकार्थक नाम हैं । सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञके उपदेशका तो श्रद्धान असंदिग्धरूप से करता ही है । किन्तु यदि किसी गहन एवं सूक्ष्म तत्त्वको स्वयं समझने में असमर्थ हो और परमागममें उसका स्पष्ट उल्लेख मिल नही रहा हो, तो वह गुरुके वचनोको ही प्रमाण मानकर गुरुके नियोगसे असत्यार्थ अर्थका भी श्रद्धान कर लेता है, तथापि उसके सम्यग्दृष्टिपनेमे कोई दोष नहीं आता है, इसका कारण यह है कि उसकी दृष्टि इस स्थल पर परीक्षा-प्रधान न होकर आज्ञा - प्रधान है । किन्तु जब कोई अविसंवादी सूत्रान्तरसे उसे यथार्थं वस्तु-स्वरूप दिखा देता है और उसके देख लेनेपर भी यदि वह अपना दुराग्रह नहीं छोड़ता है, तो वह जीव उसी समयसे मिध्यादृष्टि माना जाता है । ऐसा परमागममें कहा गया है । अतएव सम्यग्दृष्टिको वस्तु स्वरूपका यथार्थ श्रद्धानी होना आवश्यक है ।
मिथ्यादृष्टि जीव नियमसे सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान नहीं करता है, किन्तु असर्वज्ञ पुरुषोंके द्वारा उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भावका, अर्थात् पदार्थ के विपरीत स्वरूपका श्रद्धान करता है ॥ १०८॥
विशेषार्थ - मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहके उदय होनेके कारण वस्तु स्वरूपका विपरीत ही श्रद्धान करता है । उसका यह विपरीत श्रद्धान कदाचित् इसी भवका गृहीत होता है और कदाचित् पूर्वभवसे चला आया हुआ अर्थात् अगृहीत होता है, इन दोनो बातोंके बतलानेके लिए सूत्रमे ‘उपदिष्ट, और अनुपदिष्ट' ये दो पद दिये है ।