________________
६४८
कसाय पाहुड सुत्त [११ दर्शनमोह-क्षपणाधिकार ओलुत्ते* तदो पलिदोवमस्स संखेज्जा भागा आगाइदा । ५०. तदो सेसस्स संखेज्जा भागा आगाइदा । ५१. एवं द्विदिखंडयसहस्सेसुगदेसु दूरावकिट्टी पलिदोवमस्स संखेज्जे भागे द्विदिसंतकम्मे सेसे तदो सेसस्स असंखेज्जा भागा आगाइदा । मोहके स्थितिसत्त्वके पल्योपमप्रमाण अवशिष्ट रह जानेपर स्थितिकांडकके आयामका प्रमाण पल्योपमका संख्यात वहुभाग हो जाता है। तदनन्तर शेप स्थितिसत्त्वके संख्यात वहुभाग स्थितिकांडकघातके लिए ग्रहण करता है। इस प्रकार सहस्रो स्थितिकांडकोके व्यतीत होनेपर
और पल्योपमके संख्यातवें भागमात्र दर्शनमोहनीयकर्मके स्थितिसत्त्व शेष रह जानेपर दूरापकृष्टि नामकी स्थिति होती है । तत्पश्चात् शेप बचे हुए स्थितिसत्त्वके असंख्यात वहुभागोको स्थितिकांडकरूपसे घात करनेके लिए ग्रहण करता है ॥४१-५१॥
विशेषार्थ-दर्शनमोहको क्षपणा करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणके कालमे दर्शनमोहनीयकर्मके स्थितिसत्त्वके चार पर्व या विभाग होते हैं, जिनमें क्रमशः स्थितिसत्त्व कमती होता हुआ चला जाता है। इनमेसे प्रथम पर्वमे दर्शनमोहका स्थितिसत्त्व सागरोपमलक्षपृथक्त्व रहता है। दूसरे पर्वमें घटकर पल्योपमप्रमाण रहता है। तीसरे पर्वमे दूरापकृष्टिप्रमाण अर्थात् पल्योपमके असंख्यात भागमात्र स्थितिसत्त्व रह जाता है और चौथे पर्वमे आवलीमात्र स्थितिसत्त्व अवशिष्ट रह जाता है। ऊपर बतलाये गये क्रमसे संख्यातसहस्र स्थितिकांडकघातोके होनेपर दूसरे पर्वमें पल्योपमप्रमाण दर्शनमोहका स्थितिसत्त्व वतला आये हैं । उसके पश्चात् पुनः अनेक सहस्र स्थितिकांडकघातोके होनेपर तीसरे पर्वमे दूरापकृष्टिप्रमाण स्थितिसत्त्व रह जाता है । दूरापकृष्टिका अर्थ यह है कि पल्यप्रमाण स्थितिसत्त्वसे अत्यन्त दूर तक अपकर्पणकर अर्थात् स्थितिको घटाते-घटाते जब वह पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण रह जाय, ऐसे सवसे अन्तिम स्थितिसत्त्वको दूरापकृष्टि कहते हैं। दूरापकृष्टिका दूसरा अर्थ यह भी किया गया है कि इस स्थलसे आगे अवशिष्ट स्थितिसत्त्वके असंख्यातवहुभागोको ग्रहण करके एक-एक स्थितिकांडकघात होता है। यह दूरापकृष्टिरूप स्थितिकांडकघात एक-विकल्परूप है या अनेक-विकल्परूप है, इस प्रश्नका उत्तर कितने ही आचार्योंके मतसे एक-विकल्परूप दिया गया है, अर्थात् वे कहते हैं कि आगे आवलीप्रमाण स्थितिसत्त्व रहनेतक स्थितिकांडकघातका प्रमाण सर्वत्र समान ही रहता है। परन्तु जयधवलाकारने इस मतका खंडन करके यह सयुक्तिक सिद्ध किया है कि दूरापकृष्टि अनेक-विकल्परूप है। दूरापकृष्टिके पश्चात् पल्यको असंख्यात का भाग देनेपर बहुभागमात्र आयामवाले संख्यातसहस्र स्थितिकांडकघात होनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिके असंख्यात समयप्रवद्धोकी उदीरणा होती है । पुनः अनेको स्थितिकांडकघातोके होनेपर मिथ्यात्वके आवलीप्रमाण निपेक अवशिष्ट रहते हैं, शेप सर्व द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूपसे परिणमित हो जाता है। इस अवशिष्ट आवलीप्रमाण सत्त्वको ही उच्छिष्टावली कहते हैं।
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'ओलुत्ते के स्थान पर सूत्र और टीका दोनों में ही 'ओसुलुत्त' पाठ मुद्रित है। (देखो पृ० १७५१)