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मा० ११४ ]
दर्शनमोहनीय क्षपक- विशेषक्रिया निरूपण
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६४. एतो पाए तो मुहुत्तिगं द्विदिखंडयं । ६५. अपुव्यकरणस्स पढमसमयादो पाए जाव चरिमं पलिदोवमस्स असंखेज्जभागट्टि दिखंडयं ति एदम्मि काले जं पदेसग्गमोक माणो सन्वरहस्साए आवलियबाहिरद्विदीए पदेसग्गं देदि तं थोवं । समयुतराए द्विदीए जं पदेसग्गं देदि तमसंखेज्जगुणं । एवं जावं गुणसे डिसीसयं ताव असंखेज्जगुणं, तदो गुणसेडिसीसयादो उवरिमाणंतरद्विदीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणहीणं, तदो विसेसहीणं । सेसासु वि द्विदीसु विसेसहीणं चेव, णत्थि गुणगारपरावती' । ६६. जाधे अट्ठवासट्ठिदिगं संतकम्मं सम्पत्तरस ताधे पाए सम्मत्तस्स अणुभागस्स अणुसमय ओवणा । एसो ताव एको किरियापरिवत्तो । ६७. अंतोमुहुत्तिगं चरिमट्ठिदिखंडयं । ६८. ताधे पाए ओवट्टिज्जमाणासु ट्ठिदीसु उदये थोवं पदेसगं दिजदे । ही सम्यक्त्वप्रकृतिका स्थितिसत्त्व आठ वर्षप्रमाण होता है । इसी समय वह 'दर्शनमोहनीयक्षपक' कहलाता है || ६०-६३॥
चूर्णिसू० - इस पाये पर अर्थात् 'दर्शनमोहनीय-क्षपक' यह संज्ञा प्राप्त होनेपर अन्तमुहूर्तं प्रमाणवाला स्थितिकांडक आरम्भ होता है । अपूर्वकरणके प्रथम समय से लेकर पल्यो - पमके असंख्यातवे भागवाले स्थितिकांडक तक इस कालमें जिस प्रदेशाका अपकर्षण करता हुआ सबसे ह्रस्व उदद्यावलीसे बाहिरी स्थितिमे जो प्रदेशाग्र देता है, वह सबसे कम है । इससे एक समय अधिक स्थितिमें जिस प्रदेशाको देता है, वह असंख्यातगुणित है | इससे 'दो समय अधिक स्थिति में असंख्यातगुणित प्रदेशायको देता 1) इस प्रकार गुणश्रेणी शीर्ष तक असंख्यातगुणित प्रदेशाको देता है । तत्पश्चात् गुणश्रेणीशीर्षकसे उपरिम- अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगुणित हीन प्रदेशाको देता है । तत्पश्चात् विशेष हीन प्रदेशात्रको देता है । इस प्रकार शेष सर्व स्थितियो में भी विशेष -हीन विशेष-हीन ही प्रदेशाय को देता है । यहॉपर कहीं भी गुणकारमें या किसी क्रियाविशेषसें कोई परिवर्तन नहीं होता है । जिस समय सम्यक्त्वप्रकृतिका स्थितिसत्त्व आठ वर्षप्रमाण रह जाता है, उस समय सम्यक्त्व प्रकृति के अनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना होती है । तब यह एक क्रियाविशेषरूप परिवर्तन होता है । इसी समय अन्तिम स्थितिकांडकका आयाम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है, अर्थात् जो पहलेसे दूरापकृष्टिसे लेकर इतनी दूर तक पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाणवाला स्थितिकांडक चला आ रहा था, वह स्थितिकांडक इस समय संख्यात आवली आयामवाले अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण हो जाता है । यह एक दूसरा क्रिया-परिवर्तन है । उस समय अपवर्तन की जाने - वाली स्थितियो में से उदय में अल्प प्रदेशायको देता है । उससे अनन्तर समय में असंख्यात -
१ एदम्मि निरुद्धकाले दिजमाणस्स दिस्समाणस्स वा पदेसग्गस्स अणतरपरूविदो चैव गुणगारकमो, त्थितत्थ अण्णा रिपेण कमेण गुणगारपवृत्ति त्तिज वृत्त होइ । गुणगारो णाम किरियाभेदो, सो णत्थि त्ति वा जाणवणट्ठ 'णत्थि गुणगारपरवत्ती' इदि सुत्ते णिद्दिट्ठ | जयध०
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'किरियापरिवत्तो' इस पदसे आगे 'जं सम्मत्ताणुभागस्स पुच्वं विट्ठाणियसरूवस्स एहिमे गट्ठाणियस रूवेणाणुसमयोवट्टणा पारद्धा त्ति' इतना अश और भी सूत्र रूपसे मुद्रित है (देखो पृ० १७५८ ) । पर वस्तुतः यह टीकाका अश है, यह इसी स्थलकी टीकासे सिद्ध है ।