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कसाय पाहुड सुत्त
[ ८ चतुःस्थान अर्थाधिकार १२. उजुमुदो एदाणि च ठवणं च अद्धद्वाणं च अवणेइ । १३. सदणयो णामट्ठागां संजमट्ठाणं खेत्तट्ठाणं भावद्वाणं च इच्छदि । १४. एत्थ भावद्वाणे पयदं ।
१५. तो सुत्तविहासा । १६. तं जहा । १७. आदीदो चत्तारि सुत्तगाहाओ एदेसि सोलसह द्वाणाणं णिदरिसण-उवणये । १८. कोहडाणाणं चउन्हं पि कालेण णिदरिसण- उवणओ कओ । १९. सेसाणं कसायाणं बारसण्हं द्वाणाणं भावदो णिदरिसणउवणओ कओ |
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विशेषार्थ - इसका कारण यह है कि संग्रहनय पदार्थ को संग्रहात्मक संक्षिप्त रूपसे ग्रहण करता है, अतः पलिवीचिस्थानका तो कपायपरिणामोके तारतम्यकी अपेक्षा अद्धास्थानमै अन्तर्भाव हो जाता है, अथवा सोपानस्थानकी अपेक्षा क्षेत्रस्थानमे प्रवेश हो जाता है । तथा उच्चस्थानका क्षेत्रस्थानमे अन्तर्भाव हो जाता है, अतः संग्रहनय पृथक् रूपसे इन दोनो स्थानोका अस्तित्व स्वीकार नहीं करता है । व्यवहारनय तो संग्रहनयका ही अनुगामी है, संगृहीत अर्थको ही अपना विषय बनाता है, अतः वह भी पलिवीचिस्थान और उच्चस्थानको ग्रहण नही करता है । चूर्णिसू० - ऋजुसूत्रनय पलिवीचिस्थान, उच्चस्थान, स्थापनास्थान और अद्धास्थानको छोड़कर शेष स्थानोको ग्रहण करता है । इसका कारण यह है कि ऋजुसूत्र नय एक समयस्थायी पदार्थको ग्रहण करता है और ये सब स्थान भूत और भविष्यत् कालके ग्रहण किये बिना संभव नहीं हैं । शब्दनय-नामस्थान, संयमस्थान क्षेत्रस्थान और भावस्थानको स्वीकार करता है । क्योकि, ये स्थान शब्दनयके विपयकी मर्यादामे आते है । पर शेष स्थान स्थूल अर्थात्मक या संग्रहात्मक होनेसे शब्दनयकी मर्यादासे वाहिर पड़ जाते हैं, अतः शब्दन उन्हें विषय नही करता है ।।१२-१३॥
ऊपर जिन अनेक प्रकार के स्थानोका वर्णन किया गया है, उनमे से यहाँ किससे प्रयोजन है, इस शंकाका समाधान करनेके लिए चूर्णिकार उत्तरसूत्र कहते हैचूर्णि सू० - यहॉपर भावस्थान से प्रयोजन है ॥ १४॥
विशेषार्थ-यद्यपि चूर्णिकारने सामान्यसे भावस्थानको प्रकृत कहा है, तथापि यहॉपर भावस्थानका दूसरा भेद जो नोआगम-भावस्थान है, उसीका ग्रहण करना चाहिए, क्योकि लता दारु आदि अनुभागस्थानोका इसीमे ही अवस्थान माना गया है ।
चूर्णिसू ०. (० - अव गाथा सूत्रोंकी विभाषा की जाती है । वह इस प्रकार है - आदिसे चार सूत्र-गाथाएँ इन उपर्युक्त सोलह स्थानोका निदर्शन ( दृष्टान्त ) पूर्वक अर्थ-साधन करती हैं । इनमेंसे क्रोध कषायके चारों स्थानोका निदर्शन कालकी अपेक्षा किया गया है और शेप तीन मानादि कषायोके बारह स्थानोका निदर्शन भावकी अपेक्षा किया गया है ॥१५- १९॥
*ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'पदेसिं सोलसण्हं द्वाणाणं णिरिसण- उचणये' इतने सूत्राको टीकाका अंग बना दिया है | तथा अग्रिम सूत्रकी उत्थानिका के अनन्तर 'पदेर्लि सोलसट्टाणाण णिइरिसगोवणये पडिवद्धाओ त्ति पढमगाहा' इस टीकाके अंशको सूत्र वना दिया गया है । (देखो पृ०१६८७)