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फसाय पाहुड सुत्त [९व्यञ्जन-अर्थाधिकार (३५) माया य सादिजोगो णियदी वि य वंचणा अणुज्जुगदा ।
गहणं मणुण्णमग्गण कक कुहक गृहणच्छण्णो ॥८॥ (३६) कामो राग णिदाणो छंदो य सुदो य पेज दोसो य ।
__णेहाणुराग आसा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य॥८९॥ (३७) सासद पत्थण लालस अविरदि तण्हा य विजजिब्मा य। लोभस्स णामधेजा वीसं एगट्ठिया भणिदा ॥९०॥
एवं वंजणे त्ति समत्तमणिओगद्दारं । द्वारा उद्धत या गर्व-युक्त होनेको उसिक्त कहते हैं। ये सब ही नाम अहंकारके रूपान्तर होनेसे मानके पर्यायवाची कहे गये है।
माया, सातियोग, निकृति, वंचना, अनृजुता, ग्रहण, मनोज्ञमार्गण, कल्क, कुहक, गूहन और छन्न ये ग्यारह नाम मायाकषायके हैं ॥८८॥
विशेषार्थ-कपटके प्रयोगको माया कहते है। सातियोग नाम कूटव्यवहारका है । दूसरेके ठगनेके अभिप्रायको निकृति कहते हैं। योग-वक्रता या मन, वचन, कायकी कुटिलताको अनृजुता कहते हैं। दूसरेके मनोज्ञ अर्थके ग्रहण करनेको ग्रहण कहते है । दूसरेके गुप्त अभिप्रायके जाननेका प्रयत्न करना मनोज्ञ-मार्गण है । अथवा मनोज पदार्थको दूसरेसे विनयादि मिथ्या-उपचारोके द्वारा लेनेका अभिप्राय करना मनोज्ञ-मार्गण है । दम्भ करनेको कल्क कहते हैं । असद्भूत मंत्र-तंत्र आदिके उपदेश-द्वारा लोगोको अनुरंजन करके आजीविका करनेको कुहक कहते है । अपने भीतरी खोटे अभिप्रायको बाहर नहीं प्रगट होने देना गृहन कहलाता है । गुप्त प्रयोगको या विश्वास-घात करनेको छन्न कहते हैं। ये सब नाम मायाप्रधान होनेके कारण मायाके पर्यायवाची कहे गये हैं।
काम, राग, निदान, छन्द, स्वत, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्छा, गृद्धि, साशता या शास्वत, प्रार्थना, लालसा, अविरति तृष्णा, विद्या, और जिह्वा ये वीस लोभके एकार्थक नाम कहे गये हैं ॥८९-९०॥
विशेषार्थ-इष्ट पुत्र, स्त्री आदि परिग्रहकी अभिलाषाको काम कहते है । इष्ट विषयोमे आसक्तिको राग कहते हैं। जन्मान्तर-सम्बन्धी संकल्प करनेको निदान कहते हैं । मनोनुकूल वेष-भूषामें उपयोग रखना छन्द कहलाता है । विविध विषयोके अभिलापरूप कलुपित जलके द्वारा आत्म-सिंचनको स्वत कहते हैं। अथवा 'स्व' शब्द आत्मीय-वाचक भी है। स्व के भावको स्वत कहते हैं, तदनुसार स्वतका अर्थ ममता या ममकार होता है। प्रिय वस्तुके पानेके भावको प्रय कहते हैं। दूसरेके वैभव आदिको देखकर ईर्षालु हो उसके समान या उससे अधिक परिग्रह जोड़नेके भावको द्वेष या दोप कहते हैं। इष्ट वस्तुमें मनके