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मा० ९४ ]
उपशामक - योग्यता -निरूपण
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२८ 'कदिहं वा पवेसगो' त्ति विद्यासा' । २९. मूलपयडीणं सच्चासि पवेसगो । ३०. उत्तरपयडीणं पंच णाणावरणीय चदुदंसणावरणीय मिच्छत्त- पंचिदियजादि - तेनाकम्मइयसर र-वण्ण गंध-रस- फास - अगुरुगलहुग- उवघाद- परघादुस्सास-तस बादर-पज्जत्तपत्तंय सरीर थिराथिर - सुभासुभ- णिमिण-पंचंतराइयाणं णियमा पवेसगो । ३१. सादासादाणमण्णदरस्स पवेसगां । ३२. चटुहं कसायाणं तिण्हं वेदाणं दोन्हं जुगलाणमण्णदरस्स पवेसगो । ३३. भय-दुर्गुछाणं सिया पवेसगो । ३४. चउण्हमाउआणमण्णदरस्स पत्रे सगो । ३५. चदुण्हं गणामाणं दोपहं सरीराणं छण्हं संठाणाणं दोण्हमंगोवंगाणमण्णदरस्स पवेसगो । ३६. छण्हं संघडणाणं अण्णदरस्त सिया । ३७ उज्जोवस्स मिया | | ३८. दो विहाय गइ सुभग- दुभग-सुस्सर दुस्सर-आदेज्ज अणादेज्ज-जसगित्ति - अजसगित्ति- अण्णदरस पवेसगो । ३९. उच्चाणी चागोदाणमण्णदरस्स पवेसगो ।
४०. ' के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदरण वा' त्तिविहासा । ४१. असादावेद
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चूर्णिसू० - 'कदिहं वा पवेसगो' दूसरी गाथाके इस अन्तिम पदकी विभाषा इस प्रकार है- दर्शनमोहका उपशामक जीव सभी मूल प्रकृतियोकी उदीरणा करता है । उत्तर प्रकृतियों में से पाँचो ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, पंचेन्द्रियजाति, तैजस-कार्मणशरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और अन्तरायकी पाँचो प्रकृतियोका उदगाद्वारा नियमसे उद्यावलीमे प्रवेश करता है । सातावेदनीय और असातावेदनीयमें से किसी एकका प्रवेश करता है । चारो कषायोमेसे किसी एक कषायका, तीनो वेदोमे से किसी एक वेदका और हास्यादि दो युगलोमेंसे किसी एक युगलका प्रवेश करता है । भय और जुगुप्साका स्यात् प्रवेश करता है । चारो आयुमे से किसी एकका प्रवेश करता है । चारो गतिनामोमेसे किसी एकका, औदारिक और वैक्रियिक इन दो शरीरोमेंसे किसी एकका, छहो संस्थानोमेसे किसी एकका, तथा औदारिकांगोपांग और वैक्रियिकांगोपांग से किसी एकका प्रवेश करता है । छहो संहननोमे से किसी एकका स्यात् प्रवेश करता है । उद्योतका स्यात् प्रवेश करता है । दोनो विहायोगति, सुभग- दुभंग, सुस्वर दुःस्वर, आदेय- अनादेय, यश कीर्ति और अयश कीर्त्ति इन युगलो में से किसी एक एकका प्रवेश करता है । उच्चगोत्र और नीचगोत्र मेसे किसी एकका प्रवेश करता है ॥२८-३९॥
चूर्णि सू०० - अब तीसरी गाथाके 'के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदएण वा' इस पूर्वार्धकी विभाषा करते हैं-दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम करनेवाले जीवके असातावेदनीय, स्त्रीछ ताम्रपत्रवाली प्रतिमें यह सूत्र इस प्रकारसे मुद्रित है - [सादासाद वेदणीयाणमण्णदरस्स पवेसगो] ( देखो पृ० १७०० )
| ताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'सिया' पदको टीकामें सम्मिलित कर दिया है (देखो पृ० १७०१ ) । पर टीका के अनुसार इसे सूत्रका अश होना चाहिए ।
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