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कसाय पाहुड सुत्त [१० सम्यक्त्व-अर्थाधिकार ४५. पंचदंसणावरणीय-चदुजादिणामाणि चदुआणुपुषिणामाणि आदानथावर-सुहुम-अपज्जत्त साहारणसरीरणामाणि एदाणि उदएण वांच्छिणाणि ।
४३. 'अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं' ति विहासा । ४४. ण ताव अंतरं, उवसामगो वा पुरदो होहिदि त्ति ।
एवं तदियगाहाए अत्थविहासा समत्ता। ४५. 'किं ठिदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा। ओवट्टेयण सेसाणि कं । ठाणं पडिवज्जदि' त्ति विहासा । ४६. द्विदिघादो* संखेज्जा भागे घादेदण संखेज्जदिविच्छेद नहीं पाया जाता है, इसीलिए सूत्रमे इन उक्त प्रकृतियो के बन्ध-विच्छेदका निर्देश नहीं किया गया है । बन्ध-प्रकृतियोके विच्छेदका निर्देशक यह चूर्णिसूत्र चतुर्गति-सामान्यकी अपेक्षासे प्रवृत्त हुआ है। पुनः सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्धापसरण होनेपर असाता. वेदनीय, अरति; शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःर्कार्ति, इन प्रकृतियोका एक साथ बन्धविच्छेद होता है । इस प्रकार चौंतीस बन्धापसरणोके द्वारा उपयुक्त प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती है, अर्थात् उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकतियोंका बन्ध नहीं करता है।
इस प्रकार दर्शनमोहके उपशमनके पूर्व होनेवाले प्रकृतिवन्ध-व्युच्छेदको बतलाकर अब चूर्णिकार प्रकृति विषयक उदय-व्युच्छेदका निरूपण करनेके लिए उत्तरसूत्र कहते हैं
चूर्णिस०-पाँच दर्शनावरणीय, एकेन्द्रियादि चार जातिनामकर्म, चारो आनुपूर्व्यनामकर्म, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीरनामकर्म, इतनी प्रकृतियाँ उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥४२॥
विशेषार्थ-यहॉपर दर्शनावरणीयकी पॉच प्रकृतियोंमेसे पॉचो निद्राकर्मीका ग्रहण करना चाहिए, क्योकि दर्शनमोहका उपशमन करनेवाले जीवके साकार-उपयोग और जागृतअवस्था बतलाई गई है, जो कि किसी भी प्रकारके निद्राकर्मके उदयमे संभव नहीं है। यही बात चार जाति आदि शेष प्रकृतियोके उदय विच्छेदके विषयमे जानना चाहिए।
___ चूर्णिस०-अव 'अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं' तीसरी गाथाके इस उत्तरार्धकी विभापा करते हैं-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमै न अन्तरकरण होता है और न यहाँ पर वह मोहकर्मका उपशामक ही होता है, किन्तु आगे जाकर अनिवृत्तिकरणके कालमें ये दोनों ही कार्य होगे ॥४३-४४॥ __ इस प्रकार तीसरी गाथाकी अर्थ-विभाषा समाप्त हुई।
चूर्णिसू०-अब 'किं ठिदियाणि कम्माणि' इस चौथी गाथाकी विभाषा की जाती है। स्थितियात संख्यात बहुभागोका घात करके संख्यातवें भागको प्राप्त होता है । अनुभागघात अनन्त बहुभागोंका घात करके अनन्तवें भागको प्राप्त होता है। इसलिए इस अध:
७ ताम्रपत्रवाली प्रतिमें विदिघादो' के स्थानपर 'ट्ठिदियादो' पाठ मुद्रित है (देखो पृ० १७०६)।