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कसाय पाहुड सुत्त [८ चतुःस्थान-अर्थाधिकार समाणं कोहं वेदयदि । २३. जो सव्वेसि [ संखेज्जासंखेज्जाणंतेहि ] भवेहिं उत्सम ण गच्छइ, सो पव्वदराइसमाणं कोहं वेदयदि (४)। २४. एदाणुमाणियं सेसाणं पि कसायाणं कायव्वं । २५. एवं चत्तारि सुत्तगाहाओ विहासिदाओ भवंति ।
एवं चउट्ठाणे त्ति समत्तमणिओगद्दारं । विशेषार्थ-जिस प्रकार हलके जोतनेसे या गर्मीकी अधिकतासे पृथिवीमे उत्पन्न हुई रेखा अधिकसे अधिक छह मास तक बनी रह सकती है, उसी प्रकार जो रोपपरिणाम प्रतिशोधकी भावनाको लिए हुए अर्ध माससे लेकर छह मास तक बना रहे, उसे पृथिवीकी रेखाके सदृश जानना चाहिए । इस जातिके कपायोदय-कालमें जीव संयमासंयमको भी नहीं धारण कर सकता है । हॉ, सम्यक्त्वको अवश्य धारण कर लेता है।
चूर्णिसू०-जो जीव संख्यात, असंख्यात या अनन्त भवोके द्वारा भी उपशमको प्राप्त नहीं होता है, वह पर्वतराजिसमान क्रोधका वेदन करता है ॥२३॥
विशेषार्थ-जिस प्रकार पर्वत-शिलामें उत्पन्न हुआ भेद कभी भी संधानको प्राप्त नहीं होता है, इसी प्रकार किसी कारणसे उत्पन्न होकर जो रोपपरिणाम किसी जीवमें अवस्थित रहता हुआ संख्यात, असंख्यात या अनन्त भव तक भी उपशान्त न हो, प्रत्युत इतने लम्बे कालके व्यतीत हो जानेपर भी अपने प्रतिपक्षी जीवको देखकर बदला लेनेके लिए उद्यत हो जाय, उसे पर्वतराजिसदृश कहा गया है। इस जातिकी कपायके उदय होनेपर जीव सम्यक्त्वको भी ग्रहण नहीं कर सकता है, किन्तु मिथ्यात्वमें ही पड़ा रहता है । यह क्रोध कषायका चौथा भेद है, यह बतलाने के लिए उक्त सूत्रके अन्तमे चूर्णिकारने (४) का अंक दिया है । ऊपर जो पृथिवीराजि आदिके सदृश क्रोधका पक्ष, छह मास आदि काल बतलाया गया है, और पहले उपयोग-अधिकारमे प्रत्येक कपायका अन्तर्मुहूर्त ही उत्कृष्ट काल बतलाया है, सो इसमे विरोध नहीं समझना चाहिए । वास्तवमे किसी भी कषायका उपयोग अन्तर्मुहुर्तसे अधिक नहीं रह सकता है। तथापि यहॉपर उक्त काल तक उन-उन कषायोंक अवस्थानका जो वर्णन किया गया है, वह प्रतिशोधकी भावनासे अवस्थित शल्य, वासना या संस्कारकी अपेक्षासे किया गया जानना चाहिए ।
चूर्णिसू०-इसी प्रकारके अनुमानका आश्रय लेकर शेष कषायोके स्थानोका भी उपनय अर्थात् दृष्टान्तपूर्वक अर्थका प्रतिपादन करना चाहिए। इस प्रकार चार सूत्रगाथाओकी विभाषा की गई है। इसी दिशासे शेष वारह गाथाओंकी भी विभाषा कर लेना चाहिए ॥२४-२५॥
इस प्रकार. चतुःस्थान नामक आठवॉ अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।