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गा० ८५ ]
कषाय- वासना-काल-निरूपण
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२०. जो अंतोहुत्तिगं निधाय कोहं वेदयदि सो उदयराइसमार्ण कोहं वेदयदि । २१. जो अंतोमुहुत्तादीदमंतो अद्धमासस्स कोधं वेदयदि सो बालुवराइसमार्ण कोहं वेदयदि । २२. जो अद्धमासादीदमंतो छहं मासाणं कोथं वेदयदि सो पुढविराइविशेषार्थ - क्रोधकषायके जो नगराजि, पृथ्वीराजि आदि चार स्थान ऊपर बतलाये गये हैं, वे कालकी अपेक्षा जानना चाहिए। जैसे नग (पापाण) की रेखा बहुत लम्बा काल व्यतीत हो जानेपर भी ज्यो की त्यो बनी रहती है, पृथ्वीकी रेखा उससे कम समय तक अवस्थित रहती है, इसी प्रकार क्रोधकषायके संस्कार या वासनारूप स्थान भी तरतमभावको लिये हुए अल्प या अधिक काल तक पाये जाते है इसलिए इन्हें कालकी अपेक्षा कहा गया है । मान आदि तीनो कषायोके स्थानोको जो लता, दारु, आदि रूप दृष्टान्त दिये गये है, उन्हे भावकी अपेक्षा जानना चाहिए । अर्थात् लताके समान कोमल या मृदु भाववाले स्थानको लतासमान कहा । इससे कठोर भाववाले स्थानको दारु ( काठ) के सदृश कहा और उससे भी कठोर भावोको अस्थि या शैलके समान कहा । मायाके चारो दृष्टान्त भी परिणामोकी सरलता या वक्रताकी हीनाधिकता से कहे गये है । लोभके चारो उदाहरण भी तृष्णाजनित कृपणभावकी अधिकता या हीनता की अपेक्षा कहे गये हैं । इस प्रकार चूर्णिकारने इन aat कषायके सभी स्थानोको भावकी अपेक्षा कहा है ।
अब चूर्णिकार कालकी अपेक्षा ऊपर बतलाये गये क्रोधकषायके चारो स्थानोका विशेष निरूपण करते है
चूर्णिस० - जो जीव अन्तर्मुहूर्त तक रोषभावको धारण कर क्रोधका वेदन करता है, वह उदकराजिसमान क्रोधका वेदन करता है ॥२०॥ विशेषार्थ - जल- रेखा अन्तर्मुहूर्त से अधिक ठहर नही सकती है । अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् जिस प्रकार जल - रेखाका अस्तित्व संभव नही है, उसी प्रकार जल - रेखाके सदृश क्रोध भी अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं ठहर सकता । यह जलरेखाके सदृश क्रोध संयमका घातक तो नहीं है, फिर भी संयममें मल, दोष या अतिचार अवश्य उत्पन्न करता है ।
चूर्णिसू० - जो अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् अर्ध मास तक क्रोधका वेदन करता है, चह वालुकाराजिसमान क्रोधका वेदन करता है ॥२१॥
विशेषार्थ - जिस प्रकार वालुमे उत्पन्न हुई रेखा एक पक्षसे अधिक नहीं ठहर सकती, उसी प्रकार जो कपायोदय-जनित कलुप परिणाम अन्तर्मुहूर्त से लेकर अर्ध मास तक आत्मामे शल्यरूपसे या बदला लेनेकी भावनासे अवस्थित रहता है, उसे वालुकाराजिके समान कहा गया है । यह वालुकाजि - सदृश कषायपरिणाम संयमका घातक है, अर्थात् इस जातिकी कपायके उदयमें जीव संयमको नहीं धारण कर सकता है, किन्तु संयमासंयमको ग्रहण भी कर सकता है और पालन भी ।
चूर्णिस० - जो अर्ध मास से लेकर छह मास तक क्रोधका वेदन करता है, वह पृथिवीराजिसमान क्रोधका वेदन करता है ॥२२॥
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