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गा० ९०]
कषाय-एकार्थक-नाम-निरूपण
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राग-युक्त प्रणिधानको स्नेह कहते हैं । स्नेहके आधिक्यको अनुराग कहते हैं । अविद्यमान पदार्थकी आकांक्षा करनेको आशा कहते हैं। अथवा 'आश्यति' अर्थात् आत्माको जो कृश करे, उसे आशा कहते हैं । बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहकी अभिलापाको इच्छा कहते हैं । परिग्रह रखनेकी अत्यन्त तीव्र मनोवृत्ति (अभिध्वंग)को मूर्छा कहते है । इष्ट परिग्रहके निरन्तर वृद्धि या अतितृष्णा रखनेको गृद्धि कहते हैं । आशा-युक्त परिणाम या स्पृहाको साशता कहते है। अथवा शस्वत् (नित्य) के भावको शास्वत कहते है। अर्थात् जो लोभपरिणाम सदा काल बना रहे उसे शास्वत कहते हैं। लोभको शास्वत कहनेका कारण यह है कि परिग्रहकी प्राप्तिके पहिले और पीछे लोभपरिणाम सर्वकाल वीतराग होनेतक बराबर बना रहता है । धनप्राप्तिकी अत्यन्त इच्छाको प्रार्थना कहते हैं । परिग्रह-प्राप्तिकी आन्तरिक वृद्धिको लालसा कहते हैं । परिग्रहके त्यागके परिणाम न होनेको अविरति कहते हैं। अथवा अविरति नाम असंयमका भी है। लोभ ही सब प्रकारके असंयमका प्रधान कारण है, इसलिये अविरतिको भी लोभका पर्यायवाची कहा । विपय-पिपासाको तृष्णा कहते हैं। "वेद्यते वेदनं वा विद्या" अर्थात् जिसका निरन्तर पूर्वसंस्कार-वश वेदन या अनुभवन होता रहे, उसे विद्या कहते हैं। इस प्रकारके निरुक्त्यर्थकी अपेक्षा संसारी जीवोको परिग्रहके अर्जन, संरक्षण आदिकी अपेक्षा लोभकषायका निरन्तर संवेदन होता रहता है, इसलिये लोभकी विद्या यह संज्ञा सार्थक है। अथवा जो विद्याके समान दुराराध्य हो । जिसप्रकार विद्याकी प्राप्ति अत्यन्त कष्ट-साध्य हैं, उसी प्रकार धनकी प्राप्ति भी अत्यन्त परिश्रमसे होती है। जिह्वा भी लोभका पर्यायवाची नाम है । लोभको जिह्वा ऐसा नाम देनेका कारण यह है कि जिस प्रकार जिह्वा (जीभ) नाना प्रकारके सुन्दर और सुस्वादु व्यंजनोंको देखकर या नाम श्रवण कर उनके खानेके लिये लालायित रहती है, उसी प्रकार सांसारिक उत्तमोत्तम भोगोपभोग साधक वस्तुओको देखकर या उनकी कथा सुनकर जीवोंके उसकी प्राप्तिके लिए अत्यन्त लोलुपता बनी रहती है। इसप्रकार 'जिह्येव जिह्वा' उपमार्थके साधर्म्यकी अपेक्षा लोभको जिह्वा संज्ञा दी गई है। लोभके ये वीस नाम जानना चाहिये।
इस प्रकार व्यंजन नामका नवॉ अर्थाधिकार समाप्त हुआ