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.फसाय पाहुड सुत्त . [ ८ चतुःस्थान-अर्थाधिकार ३. एदं सुत्त । ४. एत्थ अत्थविहासा । ५. चउहाणेत्ति एक्कगणिक्खेवो च द्वाणणिक्खेवो' च । ६. एक्कगं पुच्चणिक्खित्त पुव्वपरूविदं च । जियोमें शुद्ध या विभक्त एकस्थानीय उपशम नहीं पाया जाता है । किन्तु संज्ञियोमे , उपशम, सत्त्व और उदयकी अपेक्षा सभी स्थान पाये जाते हैं। अब 'किस स्थानका वेदन करता हुआ जीव किस स्थानका वन्ध करता है' इस प्रश्नका संज्ञिमार्गणाकी अपेक्षा निर्णय किया जाता है-असंज्ञी जीव द्विस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ नियमसे द्विस्थानीय अनुभागको ही वॉधता है । किन्तु संज्ञी जीव एकस्थानीय अनुभागका वेदन करता हुआ नियमसे एकस्थानीय ही अनुभागको बॉधता है, शेष स्थानोको नहीं। द्विस्थानीय अनुभागका वेदन करनेवाला संज्ञी द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागको बॉधता है । त्रिस्थानीय अनुभागका वेदन करनेवाला त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागको वॉधता है। किन्तु चतुःस्थानीय अनुभागका वेदन करनेवाला नियमसे चतुःस्थानीय अनुभागको ही बॉधता है, शेष स्थानोंका अवन्धक रहता है। इसी वर्णनसे 'किस स्थानका अवेदन करता हुआ किस रथानका अवन्धक रहता है । इस प्रश्नका भी समाधान किया गया समझना चाहिए । क्योकि, एकस्थानीय अनुभागका अवेदन करता हुआ जीव एकस्थानीय अनुभागका अवन्धक रहता है, इस प्रकार व्यतिरेक मुखसे उसका प्रतिपादन हो ही जाता है । जिस प्रकार संज्ञिमार्गणाकी अपेक्षा उक्त प्रश्नोंका समाधान किया गया है, उसी प्रकार गति आदि मार्गणाओकी अपेक्षा भी जानना चाहिए, ऐसी सूचनाके लिए ग्रन्थकारने गाथासूत्रमे 'एवं सव्वत्थ कायव्वं' पद दिया है । अर्थात् तिर्यग्गतिमे तो संज्ञी और असंज्ञी मार्गणाके समान अनुभाग स्थानोका बन्धायन्ध आदि जानना चाहिए । तथा नरक, देव और मनुष्य गतिमें संज्ञिमार्गणाके समान बन्धाबन्ध आदि जानना चाहिए। केवल इतना विशेप ध्यानमे रखना चाहिए कि मनुष्यगतिके सिवाय अन्य गतियोमे एकस्थानीय अनुभागके शुद्ध बन्ध और उदय संभव नहीं हैं । इसी प्रकारसे इन्द्रियमार्गणा आदिकी प्ररूपणा भी कर लेना चाहिए ।
चूर्णिस०-चतुःस्थान नामक अधिकारके ये सोलह गाथासूत्र है । अब इनकी अर्थविभाषा की जाती है । 'चतुःस्थान' इस अनुयोग द्वारके विपयमे एकैकनिक्षेप और स्थाननिक्षेप करना चाहिए । उनमेसे एकैकनिक्षेप पूर्व-निक्षिप्त है और पूर्व-प्ररूपित भी है ॥३-६।।
विशेषार्थ-चतुःस्थान पदका क्या अर्थ है, यह जाननेके लिए निक्षेप करना आवश्यक है । इस विषयमें दो प्रकारसे निक्षेप किया जा सकता है-एकैकरूपसे और स्थानरूपसे । इनमेसे पहले एकैकनिक्षेपका अर्थ कहते हैं-चतुःशब्दके अर्थरूपसे विवक्षित लता,
१ तत्य एकगणिक्खेवो णाम चदुसद्दस्स अत्यभावेण विवक्खियाण दासमाणादि ठाणाण कोहादिकसायाणं वा एकेक घेत्तण णाम इवणाभेदेण णिक्खेवपरूवणा । ट्ठाणणिक्खेवो णाम तेमि अब्बोगाढसरू वेण विवक्खियाणं वाचओ जो ठाणसद्दा, तस्स अत्थविसणिण्णयजणण? णाम-ट्ठवणादिभेदेण पावणा।
जयघ