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गा० ८५ ) . चतुःस्थान-वन्धक-वेदक-सन्निकर्ष-निरूपण (३१) कं ठाणं वेदंतो कस्स व ट्ठाणस्स बंधगो होइ।।
कं ठाणमवेदंतो अबंधगा कस्स हाणस्स ।।८४॥ (३२) असण्णी खलु बंधइ लदासमाणं च दारुयसमगं च ।
सण्णी, चदुसु विभज्जो एवं सव्वस्थ कायव्वं (१६) ॥५॥
किस स्थानका वेदन करता हुआ कौन जीव किस स्थानका बंधक होता है और किस स्थानका अवेदन करता हुआ कौन जीव किस स्थानका अबंधक रहता है ? ॥८४॥
___ इस गाथाके द्वारा ओघ और आदेशकी अपेक्षा चारो कषायोके सोलहो स्थानोका बन्ध और उदयके साथ सन्निकर्ष करनेकी सूचना की गई है। जिसका विशेष विवरण जयधवलासे जानना चाहिए।
असंज्ञी जीव नियमसे लतासमान और दारुसमान अतुभागस्थानको बाँधता है । संज्ञी जीव चारों स्थानों में भजनीय है । इसी प्रकारसे सभी मार्गणाओंमें बन्ध और अबन्धका अनुगम करना चाहिए (१६) ॥८५॥
विशेषार्थ-इस गाथा-सूत्रके द्वारा देशामर्शकरूपसे उपर्युक्त सभी प्रश्नोका उत्तर दिया गया है। जिसका थोडासा वर्णन यहाँ जयधवलाके आधारपर किया जाता है'असंज्ञी जीव लता और दारुसमान अनुभाग-स्थानको बाँधता है', इस वाक्यसे यह भी अर्थ सूचित किया गया है कि अस्थि और शैल समान स्थानोका वन्ध नही करता है । इसका कारण यह है कि असंज्ञी जीवोमे अस्थि और शैलस्थानीय अनुभागको वॉधनेके कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेशका अभाव है। यहाँ इतना विशेप जानना चाहिए कि असंजियोमे दोनो स्थानोका अविभक्तरूपसे ही बन्ध होता है, क्योंकि विभक्तरूपसे उनमें उक्त दोनो स्थानोका बन्ध असंभव है । संज्ञियोमे किस प्रकारसे उक्त स्थानोका बन्ध होता है, इस शंकाका समाधान यह है कि संज्ञी जीव चारो स्थानोमें भजनीय है' । अर्थात् स्यात् एकस्थानीय अनुभागका वंध करता है, स्यात् द्विस्थानीय अनुभागका बंध करता है, स्यात् त्रिस्थानीय अनुभागका और स्यात् चतुःस्थानीय अनुभागका वन्ध करता है। इसका कारण यह है कि संज्ञी जीवोमें चारो स्थानोके बन्धके कारणभूत संक्श और विशुद्धिकी हीनाधिकता पाई जाती है । जिस प्रकार संज्ञिमार्गणाका आश्रय लेकर बन्ध-विपयक प्रश्नका निर्णय किया गया है, उसी प्रकारसे उदय, उपशम और सत्त्वकी अपेक्षा भी उक्त स्थानोका निर्णय करना चाहिए । जैसे--असंज्ञी जीवोंमे उदय द्विस्थानीय ही होता है, क्योकि उनमे शेप स्थानीय अनुभागउदयके कारणभूत परिणाम नहीं पाये जाते हैं। असंज्ञियोमे उपशम एकस्थानीय, द्विस्थानीय, निस्थानीय और चतुःस्थानीय पाया जाता है । केवल इतना विशेप जानना चाहिए कि असं
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'सण्णीसु' पाठ मुद्रित है ( देखो पृ० १६८२ )।
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