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गा० ८० ]
चतुःस्थान-देश- सर्वघाति-विभाग-निरूपण
(२६) सव्वावरणीयं पुण उकस्सं होइ दारुअम्माणे । ट्ठा देसावरणं सव्वावरणं च उवरिलं ॥७९॥ (२७) एसो कसो च माणे मायाए जियममा दु लोभे वि । सव्वं च काहकम्मं चदुसु ट्ठाणेसु बोद्धव्वं ॥ ८० ॥
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विशेषार्थ - विवक्षित कषायकी विवक्षित स्थानीय अन्तिम वर्गणा और तदग्रिम स्थानीय आदि वर्गणाको सन्धि कहते हैं, अर्थात्, जहाँपर विवक्षित लतादि स्थानीय अनुभागकी समाप्ति हो और दारु आदि स्थानवाले अनुभागका प्रारम्भ हो, उस स्थलको सन्धि कहते है । इस प्रकार लता, दारु, अस्थि आदि सभी स्थानोंकी अन्तिम वर्गणा और उससे आगे के स्थानाले अनुभागकी आदि वर्गणाको सन्धि जानना चाहिए । विवक्षित पूर्व सन्धिसे तदग्रिम सन्धि अनुभागकी अपेक्षा नियमसे अनन्तभागसे अधिक होती है और प्रदेशोकी अपेक्षा नियमसे अनन्तवे भागसे हीन होती है । जैसे मानकपाय के लतास्थानीय अन्तिम वर्गणारूप सन्धिसे दारुस्थानीय आदि वर्गणारूप सन्धि अनुभागकी अपेक्षा तो अनन्त' भागसे अधिक है और प्रदेशोकी अपेक्षा अनन्तवे भागसे हीन है । यही नियम चारो कषायोके सोलह स्थान सम्बन्धी प्रत्येक सन्धिपर लगाना चाहिए |
अब लता आदि चारों स्थानोंमें देशघाती और सर्वघातीका विभाग बतलाने के लिए उत्तर गाथासूत्र कहते हैं
दारुसमान स्थानमें जो उत्कृष्ट अनुभाग अंश है, वह सर्वावरणीय अर्थात् सर्वघाती है। उससे अधस्तन भाग देशघाती है और उपरितन भाग सर्वघाती है ॥ ७९ ॥ विशेषार्थ - लता, दारु, अस्थि और शैल इन चार स्थानोमेसे अस्थि और शैलस्थानीय अनुभाग तो सर्वधाती हैं ही । किन्तु दारुसमान अनुभाग में उत्कृष्ट अंश अर्थात् रपरितन अनन्त बहुभाग तो सर्वघाती है और अधस्तन एक अनन्तवां भाग देशघाती है । तथा लतासमान अनुभाग भी देशघाती है।
अब यह उपयुक्त क्रम क्रोधादि चारो कषायोके चारो स्थानोमें समान है, यह . बतलाने के लिए उत्तर गाथासूत्र कहते है
यही क्रम नियमसे मान, माया, लोभ और क्रोधकपायसम्बन्धी चारों स्थानोंमें निरवशेष रूप से जानना चाहिए ||८०||
विशेषार्थ - क्रोधादि चारो कपायोके नगराजि, पृथिवीराजि आदि चार-चार स्थानोका वर्णन पहले किया जा चुका है । उनमें से प्रत्येक कपायके द्वितीय स्थानसम्बन्धी अनुभागका उपरितन बहुभाग सर्वघातिरूप है और अधस्तन एक भाग देशघातिरूप है । तृतीय और चतुर्थ स्थानसम्बन्धी सर्व अनुभाग सर्वघाती ही है और प्रथमस्थानीय सर्व अनुभाग देश