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फसाय पाहुड सुत्त [८ चतुःस्थान-अर्थाधिकार (२४) णियमा लदासमादो अणुभागग्गेण वग्गणग्गेण ।
सेसा कमेण अहिया गुणण णियमा अणंतेण ॥७७॥ (२५) संधीदा संधी पुण अहिया णियमा च होइ अणुभागे।
हीणा व पदेसग्गे दो वि य णियमा विसेसेण ॥७८॥
उक्त प्रकारसे प्रदेशोकी अपेक्षा अल्पवहुत्व बता करके अब अनुभागकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहनेके लिए आचार्य उत्तर गाथा-सूत्र कहते हैं
लतासमान मानसे शेष स्थानीय मान अनुभागायकी अपेक्षा और वर्गणाग्रकी अपेक्षा क्रमशः नियमसे अनन्तगुणित अधिक होते हैं ॥७७॥
विशेषार्थ-यहाँ पर 'अग्र' शब्द समुदायवाचक है, अतः 'अनुभागाग्रसे' अभिप्राय अनुभागममुदायसे है और 'वर्गणान' से 'वर्गणासमूह' यह अर्थ लेना चाहिए । तदनुसार यह अर्थ होता है कि लतास्थानीय मानके अनुभाग-समुदायसे दारुस्थानीय मानका अनुभाग-समूह अनन्तगुणित है, दारुस्थानीय अनुभाग-समूहसे अस्थिस्थानीय अनुभाग-समूह अनन्तगुणित है और अस्थिस्थानीय अनुभाग-समूहसे शैलस्थानीय अनुभाग-समूह अनन्तगुणित है । अथवा अनुभाग ही अनुभागान है, इस अपेक्षा 'अ' शब्दका अविभागप्रतिच्छेद भी अर्थ होता है, इसलिए ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि लतास्थानीय मानके अनुभागसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोके समुदायसे दारुस्थानीय मानके अनुभागसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोका समूह अनन्तगुणित होता है; दारुस्थानीय मानके अविभागप्रतिच्छेदोसे अस्थिसम्बन्धी और अस्थिसे शैलसम्बन्धी अविभाग-प्रतिच्छेद अनन्तगुणित होते हैं । इसी प्रकार 'वर्गणान' के 'अग्र' शब्दका भी 'वर्गणासमूह अथवा वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंका समूह 'ऐसा अर्थ ग्रहण करके उपयुक्त विधिसे उनमे अनन्तगुणितता समझना चाहिए । - अब लतासमान चरम सन्धिसे दारुसमान प्रथम सन्धि अनुभाग या प्रदेशोकी अपेक्षाहीन या अधिक किस प्रकारकी होती है, इस शंकाके निवारण करनेके लिए आचार्य उत्तर गाथा सूत्र कहते हैं- विवक्षित सन्धिसे अग्रिम सन्धि अनुभागकी अपेक्षा नियमसे अनन्तभागरूप विशेपसे अधिक होती है और प्रदेशोंका अपेक्षा नियमसे अनन्तभागसे हीन होती है ।।७८॥
१ एत्य अग्गसद्दो समुदायस्थवाचओ, अणुभागसमूहो अणुभागग्ग; वग्गणासमूहो वग्गणग्गमिदि । अथवा अणुभागो चेव अणुभागग्गं, वग्गणाओ चेव वग्गणग्गमिदि घेत्तव्वं । जयध०
२ एत्थ दोवार णियमसदुच्चारणं किं फलमिदि चे वुच्चदे-लदासमाणठाणादो सेसाणं जहाकममणुभाग-वग्गणग्गेहिं अहियत्तमेत्तावहारणफलो पढमो णियमसहो। विदियो तेसिमणतगुणत्महियत्तमेव, न विसेसाहियत्तं, णावि सखेनासखेन्गुणभहियत्तमिदि अवहारणफलो । जयध०
३ लदाममाणचरिमवग्गणा दारुअसमाणपढमवगाणा चदो वि संधि त्ति वुच्चति । एवं सेससधीण यत्थो वत्तन्वो| जयध०