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फसाय पाहुड सुत्त [७ उपयोग-अर्थाधिकार ३१६. विदियादियाए साहणं । ३१७. माणोवजुत्ताणं पवेसणग' थोवं । ३१८. कोहोवजत्ताणं पवेसणगं विसेसाहियं । ३१९ [ एवं माया-लोभोवजुत्ताणं] । ३२०. एसो विसेसो एक्कण उबदसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि-भागपडिभागो। ३२१. पवाइज्जतेण उवदेसण आवलियाए असंखेजदिभागो ।
एवमुवजोगो त्ति समत्तमणिओगदारं । चूर्णिसु०-अव द्वितीयादिका श्रेणी-सम्बन्धी अल्पबहुत्वका साधन करते हैं-मानकषायसे उपयुक्त जीवोंका प्रवेशन-काल सबसे कम है । क्रोधकपायसे उपयुक्त जीवोका प्रवेशनकाल विशेष अधिक है। इसीप्रकार मायाकपायसे उपयुक्त जीवोंका प्रवेशन-काल विशेष अधिक है और लोसकपायसे उपयुक्त जीवोका प्रवेशन-काल विशेष अधिक है ॥३१६-३१९॥
विशेपार्थ-यह द्वितीयादिका श्रेणी-सम्बन्धी अल्पबहुत्व मनुष्य-तिर्यंचोकी अपेक्षासे जानना चाहिए, क्योकि वह उन्हीमें संभव है। प्रथमादिका श्रेणीका अल्पवहुत्व इस प्रकार है-देवगतिमें क्रोधकपायसे उपयुक्त जीव सबसे कम हैं, मानकषायसे उपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं, मायाकपायसे उपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं और लोभकपायसे उपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर संख्यातगुणित होनेका कारण यह है कि उनका काल और प्रवेश उत्तरोत्तर संख्यातगुणित पाया जाता है । चरमादिका श्रेणी-सम्बन्धी अल्पवहत्व नारकी जीवोकी अपेक्षा जानना चाहिए । उसका क्रम इस प्रकार हैं-नारकियोंमे लोभकपायसे उपयुक्त जीव सबसे कम हैं। उनकी अपेक्षा मायाकषायसे उपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं। उनकी अपेक्षा सानकपायसे उपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं। उनकी अपेक्षा क्रोधकपायसे उपयुक्त जीव संख्यातगुणित है ।
चूर्णिसू०-यह विशेष एक उपदेशकी अपेक्षा अर्थात् अप्रवाह्यमान उपदेशसे पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागरूप है। किन्तु प्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा आवलीके असंख्यातवे भागप्रमाण है ॥३२०-३२१॥
इस प्रकार उपयोग नासक सातवॉ अधिकार समाप्त हुआ।
१ कथं पुनः प्रवेशनशब्देन प्रवेशकालो गृहीतु शक्यत इति नाशंकनीयम् ; प्रविशन्त्यस्मिन् काले इति प्रवेशनशब्दस्य व्युत्पादनात् । जयध०