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कसाय पाहुड सुत्त [८ चतुःस्थान-अर्थाधिकार प्रकार बतलाये गये हैं । उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जैसे किसी पर्वतके शिलाखंडमें किसी कारणसे यदि भेद हो जाय, तो वह कभी भी किसी भी प्रयोग आदिसे पुनः मिल नहीं सकता है, किन्तु तद्वस्थ ही बना रहता है । इसी प्रकार जो क्रोधपरिणाम किसी निमित्तविशेषसे किसी जीव-विशेपसे उत्पन्न हो जाय, तो वह किसी भी प्रकारसे उपशमको प्राप्त न होगा, किन्तु निष्प्रतीकार होकर उस भवमें ज्योका त्यो बना रहेगा । इतना ही नहीं, किन्तु जिसका संस्कार जन्म-जन्मान्तर तक चला जाय, इस प्रकारके दीर्घकालस्थायी क्रोधपरिणामको नगराजिसदृश क्रोध कहते हैं । पृथ्वीके रेखाके समान क्रोधको पृथ्वीराजिसदृश क्रोध कहते हैं । यह शैलरेखा-सदृश क्रोधकी अपेक्षा अल्पकालस्थायी है, अर्थात् चिरकालतक अवस्थित रहने के पश्चात् किसी-न-किसी प्रयोगसे शान्त हो जाता है । पृथ्वीकी रेखाका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार ग्रीष्मकालमे गर्मीकी अधिकतासे पृथ्वीका रस सूख जानेके कारण पृथ्वीमे बड़ी-बड़ी दरारे हो जाती हैं, वे तबतक वरावर वनी रहती हैं जबतक कि वर्षाऋतुमे लगातार वर्षा होनेसे जलप्रवाह-द्वारा मिट्टी गीली होकर उनमे न भर जाय । गीली मिट्टीके भर जानेपर पृथ्वीकी वह रेखा मिट जाती है। इसी प्रकार जो क्रोध किसी कारण-विशेपसे उत्पन्न होकर बहुत दिनोतक बना भी रहे, पर समय आनेपर गुरुके उपदेश आदिका निमित्त मिलनेसे दूर हो जाय, उसे पृथ्वीराजिसदृश क्रोध कहते है । वालुकी रेखाके समान क्रोधको वालुराजिसदृश क्रोध कहते है। जिस प्रकार नदीके पुलिन ( वालुका मय ) प्रदेशमे किसी पुरुषके प्रयोगसे, जलके पूरसे या अन्य किसी कारण-विशेषसे कोई रेखा उत्पन्न हो जाय तो वह तव तक बनी रहती है जब तक कि पुनः जोरका जल प्रवाह न आवे । जोरके जलपूर आनेपर, या प्रचंड ऑधीके चलनेपर या इसी प्रकारके किसी कारण-विशेषके मिलनेपर वह वालुकी रेखा मिट जाती है । इसी प्रकार जो क्रोध-परिणाम गुरुके उपदेशरूप जलके पूरसे शीघ्र ही उपशान्त हो जाय, उसे वालुराजिसदृश क्रोध कहते हैं । यह पृथ्वीको रेखाकी अपेक्षा और भी अल्पकालस्थायी होता है। जलकी रेखाके समान और भी अल्प कालस्थायी क्रोधको उदकराजिसदृश क्रोध कहते हैं। यह पूर्वोक्त क्रोधकी अपेक्षा और भी कम कालतक रहता है। जैसे जलमें किसी निमित्त-विशेषसे एक ओर रेखा होती जाती है और दूसरी ओर तुरन्त मिटती -जाती है, इसी प्रकार जो कषाय अन्तर्मुहूर्तके भीतर ही तुरन्त उपशान्त हो जाती है, उसे जलराजिसमान क्रोध जानना चाहिए । मानकषायके चारो निदर्शनोका इसी प्रकारसे अर्थ करना चाहिए । अर्थात् जिस प्रकार शैलघनशिलास्तम्भ या पत्थरका खम्भा कभी भी किसी उपायसे कोमल नहीं हो सकता, इसी प्रकार जो मानकषाय कभी भी किसी गुरु आदिके उपदेश मिलनेपर भी दूर न हो सके, उसे शैलधन-सदृश मानकषाय जानना चाहिए। जैसे पापाणसे अस्थि ( हड्डी ) कुछ कोमल होती है, वैसे ही जो मानकषाय शैलसमान मानसे मन्द अनुभागवाली हो, उसे अस्थि के समान जानना चाहिए। जैसे अस्थिसे काष्ठ और भी मृदु होता है, इसी प्रकार जो मानकपाय