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८ चट्टान - अत्याहियारो
१. चउट्ठाणेत्ति अणियोगद्दारे पुव्वं गमणिज्जं सुत्तं । २. तं जहा । (१७) कोहो वह वृत्तो माणो वि चउव्विहो भवे ।
माया चउव्विहा वृत्ता लोहो वि य चउव्विहो ॥७०॥ (१८) ग. पुढवि वालुगोदय राईसरिसो चउन्विहो कोहो । सेलवण - अट्ठि दारुअ लदासमाणो हवदि माणो ॥ ७१ ॥
८ चतुःस्थान अर्थाधिकार
चूर्णिसू० – कसायपाहुडके चतुःस्थान नामक अनुयोगद्वारमें पहले गाथा-सूत्र अन्वेषण करना चाहिए । वे इस प्रकार हैं ॥ १-२ ॥
क्रांध चार प्रकारका कहा गया है। मान भी चार प्रकारका होता है । माया भी चार प्रकारकी कही गई है और लोभ भी चार प्रकारका है ॥ ७० ॥
विशेषार्थ - चतुःस्थान- अधिकार की गुणधराचार्य- मुखकमल-विनिर्गत यह प्रथम सूत्रगाथा है । इनमें क्रोधादि प्रत्येक कपायके चार-चार भेद होनेका निर्देश किया गया है । यहॉपर अनन्तानुबन्धी आदिकी अपेक्षासे क्रोधादिके चार-चार भेदोका वर्णन नहीं किया जा रहा है, क्योंकि उन भेदोका तो प्रकृतिविभक्ति आदिमें पहले ही निर्णय कर चुके है । अतएव इस चतुःस्थान अधिकारमे लता, दारु आदि अनुभाग की अपेक्षा वतलाये गये एक स्थान, द्विस्थान आदिकी अपेक्षासे कषायोके स्थानोका वर्णन किया जा रहा है । इस प्रकारका अर्थ ग्रहण करनेपर ही आगे कही जानेवाली गाथाओका अर्थ सुसंगत बैठता है, अन्यथा नहीं, क्योकि अनन्तानुबन्धी आदि तीन कषायोमें एक स्थानीयता सम्भव नहीं है । लता, दारु आदि चार प्रकारके स्थानोके समाहारको चतुःस्थान कहते हैं । इस प्रकारके चतुःस्थानके प्ररूपण करनेवाले अनुयोगद्वारको चतुःस्थान अनुयोगद्वार कहते है ।
अव क्रोधादिकषायोके उक्त चार-चार भेदोका गुणधराचार्य स्वयं गाथासूत्रीके द्वारा निरूपण कहते हैं
क्रोध चार प्रकारका है - नगराजिसदृश, पृथिवीगजिसदृश, वालुकाराजिसदृश और उदकराजिसदृश | इसी प्रकार मानके भी चार भेद हैं- शैलधनसमान, अस्थिसमान, दारुसमान और लतासमान ॥ ७१ ॥
विशेषार्थ - इस गाथामें कालकी अपेक्षा क्रोधके और भावकी अपेक्षा मानके चार-चार