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कसाय पाछुड सुत्त [७ उपयोग-अर्थाधिकार कम्हि अविरहिदं ? २७९. एत्थ मग्गणा । २८०. णिरयगदीए एगस्स जीवस्स कोहोवजोगद्धहाणेसु णाणाजीवाणं जवमज्झं । २८१. तं जहा ठाणाणं संखेज्जदिभागे २८२. एगगुणवड्डि-हाणिहाणतरमावलियचग्गमूलस्स' असंखेज्जदिभागो । . २८३. हेटा जबमज्झस्स सव्वाणि गुणहाणि-हाणंतराणि आवुण्णाणि सदा । २८४. सव्व-अहाणाणं पुण असंखेज्ज भागा आवुण्णा । २८५. उवरिम-जवमज्झस्स जहण्णेण गुणहाणिहाणंतराणं संखेजदिभागो आयुण्णा । उक्करसेण सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि आधुण्णाणि । २८६ जहण्णेण अट्ठाणाणं संखेज्जदिभागो आवुण्णो । उक्कस्सेण अद्धट्ठाणाणमसंखेज्जा भागा आउण्णा। २८७.एसो उपएमो पवाइज्जइ । २८८. अण्णो उवदंसो सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि अविरहियाणि जीवेहि उवजोगद्धट्ठाणाण
__समाधान-इस शंका उत्तरस्वरूप आगे कहे जानेवाली मार्गणा की जाती है। नरकगतिमे एक जीवके क्रोधसम्बन्धी उपयोग-अद्धास्थानोमें नानाजीवोकी अपेक्षा यवमध्य होता है । वह यवमध्य सम्पूर्ण उपयोग-अद्धास्थानोके संख्यातवे भागमें होता है । यवमध्यके ऊपर और नीचे एक गुणवृद्धि और एक गुणहानिरूप स्थान आवलीके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
चूर्णिसू०-यवमध्यके अधस्तनवर्ती सर्व गुणहानिस्थानान्तर ( कषायोदय-स्थान ) आपूर्ण हैं, अर्थात् जीवोसे भरे हुए है । किन्तु सर्व-अद्धास्थानो अर्थात् उपयोगकाल स्थानोका असंख्यात बहुभाग ही आपूर्ण है । अर्थात् उपयोगकाल-स्थानोका असंख्यात एक भाग जीवोसे शून्य पाया जाता है। यवमध्यके ऊपरवाले गुणहानिस्थानान्तरोंका जघन्यसे संख्यातवॉ भाग जीवोसे परिपूर्ण है और उत्कर्षसे सर्वगुणहानिस्थानान्तर जीवोसे परिपूर्ण हैं । जघन्यसे यवमध्यके उपरिम उपयोगकालस्थानोका संख्यातवाँ भाग जीवोंसे परिपूर्ण है
और उत्कर्षसे अद्धास्थानोका असंख्यात बहुभाग जीवोसे आपूर्ण है ॥२७९-२८६॥ . चूर्णिम् ०-यह उपयुक्त सर्व कथन प्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा किया गया है । किन्तु अप्रवाह्यमान उपदेश तो यह है कि सभी यवमध्यके अर्थात् ऊपर और नीचेके सर्व गुणहानिस्थानान्तर सर्वकाल जीवोसे परिपूर्ण ही पाये जाते है। उपयोगकाल-स्थानोका असंख्यात बहुभाग तो जीवोसे परिपूर्ण रहता है, किन्तु शेष असंख्यात एक भाग जीवोंसे विरहित पाया जाता है। इन दोनो ही उपदेशोकी अपेक्षा त्रसजीवोके कषायोदयस्थान जानना चाहिए ॥२८७-२८८॥
विशेषार्थ-ऊपर जिस प्रकार नरकगतिकी अपेक्षा कषायोदयस्थानोका निरूपण किया है, उसी प्रकार अन्य मार्गणाओकी अपेक्षा त्रसजीवोके कपायोदयस्थानोका वर्णन जानना चाहिए । इस विषयमे दोनो उपदेशोंकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है।
१ आवलिया णाम पमाणविसेसो, तिस्से वगमूलमिदि वुत्ते तप्पढमवग्गमूलत्स गहणं कायव्वं ।
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