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गा० ६९]
कषाय-अपकर्ष-अल्पबष्टुत्व-निरूपण १२५. मायागरिसा संखेज्जगुणा । १२३. लोभागरिसा विसेसाहिया ।
१२४. तिरिक्ख-मणुसगदीए असंखेज्जवस्सिगे भवग्गहणे माणागरिसा थोवा । १२५. कोहागरिसा विसे साहिया । १२६ मायागरिसा विसेसाहिया । १२७. लोभागरिसा विसेसाहिया।
१२८. एत्तो विदियगाहाए विभासा । १२९. तं जहा । १३०. 'एकम्मि भवग्गहणे एक्कसायम्मि कदि च उवजोगा' त्ति* ।
चूर्णिसू०-देवगतिमे मायाकपायसम्बन्धी परिवर्तन-वार, मानकपायसम्बन्धी परिवर्तन-वारोसे संख्यातगुणित हैं ॥१२२॥
विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि एक एक मानपरिवर्तन-वारमें संख्यात सहस्र मायापरिवर्तन-वार पाये जाते है।
चूर्णिस०-देवगतिमें लोभकपाय-सम्बन्धी परिवर्तन-वार, मायाकपायके परिवर्तनवारोंसे विशेष अधिक हैं ॥१२३॥
विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि माया-परिवर्तन-वारोकी अपेक्षा क्रोध और मानपरिवर्तनोंके प्रमाणसे लोभपरिवर्तनके वार विशेष अधिक पाये जाते हैं ।
चूर्णिसू०-तिर्यंचगति और मनुष्यगतिमे असंख्यात वर्पवाले भव-ग्रहणके भीतर मानकषायके परिवर्तन-वार इन दोनों गति-सम्बन्धी शेष कपायोके परिवर्तन-वारोंकी अपेक्षा सबसे कम हैं । तिर्यंच और मनुष्यगतिमे असंख्यात वर्षवाले भवग्रहणके भीतर क्रोधकषायके परिवर्तन-वार, मानकपायके परिवर्तन-वारोंसे विशेष अधिक हैं ॥१२४-१२५॥
विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि क्रोध और मानसम्बन्धी असंख्यात परिवर्तनपरिपाटियोके अवस्थित-स्वरूपसे व्यतीत होनेपर तत्पश्चात् एक वार मानपरिवर्तनकी अपेक्षा क्रोधपरिवर्तनके अधिकता पाई जाती है।
___ चूर्णिसू०-तिर्यंच और मनुष्यगतिमें असंख्यात वर्षवाले भवग्रहणके भीतर मायाकषायके परिवर्तन-वार, क्रोधकषायके परिवर्तन-वारोसे विशेप अधिक होते हैं। तिर्यंच और मनुष्यगतिमे असंख्यात वर्षवाले भवग्रहणके भीतर लोभकपायके परिवर्तन-वार, मायाकपायके परिवर्तन-वारोंसे विशेष अधिक होते है ।।१२६-१२७॥
इस प्रकार प्रथम गाथाका अर्थ समाप्त हुआ। चूर्णिसू०-प्रथम गाथाके व्याख्यान करनेके पश्चात् अब 'एकम्मि भवग्गहणे' इस द्वितीय गाथाकी विभाषा की जाती है। वह इस प्रकार है-'एक भवके ग्रहण करनेपर और एक कषायमे कितने उपयोग होते है ? ॥१२८-१३०॥
विशेपार्थ-नरकादि गतियोंमे संख्यात वर्षवाले अथवा असंख्यात वर्षवाले भवको
ताम्रपत्रवाली प्रतिमे इस चूणिसूत्रको 'तं जहा' इस सूत्रको टीकाका अग बना दिया है । ( देखो पृ० १६२८ ) पर इसकी सूत्रता इस स्थल्की टीकासे स्वतः सिद्ध है ।