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गा० ६९] कषायोपयोग-त्रिविध-काल-निरूपण -२४९. एवं मायोवजुत्ताणं दसविहो कालो।
२५०. जे अस्सि समए लोभोवजुत्ता तेसिं तीदे काले माणकालो दुविहो, कोहकालो दुविहो, मायाकालो दुविहो, लोभकालो तिविहो । २५१. एवमेसो कालो लोहोवजुनाणं णवविहो । २५२ एवमेदाणि सव्वाणि पदाणि वादालीसं भवंति । २५३. एत्तो वारस मत्थाणपदाणि गहियाणि ।
२५४. कधं सत्थाणपदाणि भवंति ? २५५. माणोवजुत्ताणं माणकालो णोमाणकालो मिस्सयकालो । २५६ कोहोवजुत्ताणं कोहकालो णोकोहकालो मिस्सयकालो । २५७. एवं मायोवजुत्त-लोहोवजुत्ताणं पि।।
विशेषार्थ-यहॉपर मान और क्रोधकषाय-सम्बन्धी दो दो प्रकारके ही काल बतलाये गये हैं, अर्थात् मानकाल और क्रोधकालको नहीं बतलाया गया है, इसका कारण यह है कि वर्तमान समयमें मायाकषायसे उपयुक्त जीवराशिका काल मान और क्रोधकषायसे उपयुक्त जीवराशिके कालसे अधिक पाया जाता है।
चूणिसू०-इस प्रकार वर्तमान समयमे मायाकषायसे उपयुक्त जीवोके अतीतकालमे चारो कषायसम्बन्धी दश प्रकारका काल पाया जाता है । जो जीव वर्तमानसमयमें लोभकपायके उपयोगसे उपयुक्त हैं, उनके अतीतकालमें मानकाल दो प्रकारका, क्रोधकाल दो प्रकारका, मायाकाल दो प्रकारका और लोभकाल तीन प्रकारका पाया जाता है ॥२४९ २५०॥
विशेपार्थ-ऊपर बतलाये गये चारो कपायोके काल-सम्बन्धी बारह भेदोमेसे मानकाल, क्रोधकाल और मायाकाल, ये तीन भेद नहीं होते हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमानसमयमें लोभकपायसे उपयुक्त जीवराशिका काल क्रोध, मान और मायाकषायके कालसे अधिक है।
चूर्णिसू०-इस प्रकार वर्तमानसमयमें लोभकषायसे उपयुक्त जीवोंके अतीतकालमें चारों कषायसम्बन्धी यह उपयोगका काल नौ प्रकारका होता है। इस प्रकारसे ये ऊपर बतलाये गये चारो कपायोके कालसम्बन्धी पद व्यालीस होते है ॥२५१-२५२॥ . विशेपार्थ-ऊपर मानकषायके कालसम्बन्धी बारह भेद, क्रोधकपायके ग्यारह भेद, मायाकषायके दश भेद और लोभकषायके नौ भेद बतलाये गये हैं । उन सव भेदोको मिलानेसे ( १२+११+१०+९=४२ ) व्यालीस भेद हो जाते हैं ।
चूर्णिसू०-इन उक्त व्यालीस भेदोमेसे वारह स्वस्थानपदोको अल्पवहुत्वके कहनेके लिए ग्रहण करना चाहिए ॥२५३॥
शंका-वे बारह स्वस्थानपद कैसे होते हैं ? ॥२५४॥
समाधान-मानकपायसे उपयुक्त जीवोंका मानकाल, नोमानकाल और मिश्रकाल, क्रोधकषायसे उपयुक्त जीवोका क्रोधकाल, नोक्रोधकाल और मिश्रकाल, इसी प्रकार मायाकपायसे उपयुक्त जीवोंका मायाकाल, नोमायाकाल और मिश्रकाल, तथा लोभकषायसे उपयुक्त जीवोका लोभकाल, नोलोभकाल और मिश्रकाल, इस प्रकार ये बारह स्वस्थानपद होते हैं ॥२५५-२५७॥