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कसाय पाहुड सुप्त
[ ७ उपयोग अर्थाधिकार
२३६. कमायो जुत्ते अट्ठहिं अणि ओगद्दारेहिं गदि -इ दिय-काय जोग - वेद-णाणसंजम दंसण लेस्म-भविय सम्मत्त-सण्णि आहारा त्ति एदेसु तेरससु अणुगमेषु मग्गियूण | २३७. महादंडयं च काढूण समत्ता पंचमी गाहा ।
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चूर्णि सू० - उक्त आठो अनुयोगद्वारोसे कषायोपयुक्त जीबोका गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार, इन तेरह मार्गणास्थानरूप अनुगमोके द्वारा अन्वेषण करके और पुनः चतुर्गति-सम्बन्धी अल्पबहुत्वविषयक महादंडकका निरूपण करनेपर पॉचवी गाथाकी अर्थविभाषा समाप्त होती है ।।२३६-२३७॥
विशेषार्थ उक्त समर्पणसूत्र से चूर्णिकारने प्रथम गति आदि सर्व मार्गणास्थानोमें सत्प्ररूपणा आदि आठो अनुयोगद्वारोसे क्रोधादि कपायोपयुक्त जीवोके अन्वेषण करनेकी सूचना की है । पुनः गति, इन्द्रिय आदि मार्गणा - विषयक कपायोपयुक्त जीवोके अल्पबहुत्व के निरूपणकी सूचना की है । इस अल्पबहुत्वदंडकको महादंडक कहनेका कारण यह है कि जिस प्रकार चारो कषायोसे उपयुक्त जीवोका गतिमार्गणा - सम्बन्धी एक अल्पबहुत्व-दंडक होगा, उसी प्रकार, इन्द्रियमार्गणा-सम्बन्धी भी दूसरा अल्पबहुत्व - दंडक होगा, काय मार्गगासम्बन्धी तीसरा अल्पबहुत्व - दंडक होगा । इस प्रकार सर्व मार्गणाओके अल्पबहुत्वदंडको के समुदायरूप इस अल्पबहुत्वदंडकको 'महादंडक' इस नामसे सूचित किया है । इस महादंडककी दिशा बतलानेके लिए यहॉपर गतिमार्गणा - सम्वन्धी अल्पबहुत्व - दंडक का निरूपण किया जाता है - मनुष्यगति में मानकपायसे उपयुक्त जीव सबसे कम हैं, क्रोधकषायसे उपयुक्त जीव विशेष अधिक है, मायाकषायसे उपयुक्त जीव विशेष अधिक है, और लोभकपायसे उपयुक्त जीव विशेष अधिक है | मनुष्यगतिके लोभकषायोपयुक्त जीवोसे नरकगतिमे लोभकषायोपयुक्त जीव असंख्यातगुणित है, मायाकपायोपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं, मानकपायोपयुक्त जीव संख्यातगुणित है और क्रोधकषायोपयुक्त जीव संख्गतगुणित हैं । नरकगति के क्रोधकषायोपयुक्त जीवोसे देवगतिमें क्रोधकषायोपयुक्त जीव असंख्यातगुणित है, मानकषायोपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं, मायाकषायोपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं और लोभकपायोपयुक्त जीव संख्यातगुणित हैं । देवगति के लोभकषायोपयुक्त जीवोसे तिर्यग्गति के मानकपायोपयुक्त जीव अनन्तगुणित है । क्रोधकपायोपयुक्त जीव विशेष अधिक हैं, मायाकपायोपयुक्त जीव विशेष अधिक हैं और लोभकषायोपयुक्त जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार इन्द्रिय, काय, आदि शेष मार्गणाओकी अपेक्षा पृथक् पृथक् अल्पबहुत्व - दंडक के द्वारा चारों कपायोंसे उपयुक्त जीवोके अल्पबहुत्वका निर्णय करना चाहिए, ऐसा उक्त समर्पणसूत्रका अभिप्राय है ।
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् ताम्रपत्रबाली प्रतिर्मे-‘एदेसु तेरससु अणुगमेसु मग्गियुग' इतने सूत्राशको टीकाम सम्मिलित कर दिया है ( देखो पृ० १६४९ ) । परन्तु इस सूत्र टीकासे ही उक्त अग्रके सुत्रता सिद्ध होती है ।