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कसाय पाहुड सुत्त
९७. तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
९८. सणिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । ९९. तस्सेव उक्कस्सिया को धद्धा विसेसाहिया । १०० तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । १०१ तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
१०२. सण्णि-पज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेज्जगुणा । १०३. तस्सेव उक्कस्सिया कोधा विसेसाहिया । १०४ तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । १०५. तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
[ ७ उपयोग-अर्थाधिकार
तदो पमगाहाए पुग्वद्धस्स अत्थविहासा समत्ता |
१०६. 'को वा कम्हि कसाए अभिक्खनजोगमुवजुत्तो" ति एत्थ अभिक्खमुवजोगपरूवणा कायव्वा । १०७. ओघेण ताव लोभो माया कोधो माणो ति पंचेन्द्रिय जीवके मायाका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेप अधिक है । उसी असंज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवके लोभका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है ॥९४-९७॥
चूर्णिम् ० - संज्ञी लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवके मानका उत्कृष्टकाल असंज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवके उत्कृष्ट लोभकालसे संख्यातगुणा है । उसी संज्ञी लब्ध्य पर्पाप्त पचेन्द्रिय जीवके क्रोधका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है । उसी संज्ञी लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवके मायाका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट क्रोधकालसे विशेष अधिक है । उसी संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवके लोभका उत्कृष्टकाल उसीके उत्कृष्ट मायाकालसे विशेष अधिक है ॥ ९८-१०१॥
चूर्णिसू० - संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके मानका उत्कृष्टकाल संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्कृष्ट लोभकाल से संख्यातगुणा है । इससे इसीका उत्कृष्ट क्रोधकाल विशेष अधिक है । इससे इसीका उत्कृष्ट मायाकाल विशेष अधिक है । इससे इसीका उत्कृष्ट लोभकाल विशेष अधिक है ॥१०२-१०५॥
इस प्रकार प्रथम गाथाके पूर्वार्ध के अर्थका विवरण समाप्त हुआ ।
चूर्णिसू० - 'कौन जीव किस कषाय मे निरन्तर एक सदृश उपयोगसे उपयुक्त रहता है' गाथाके इस उत्तरार्ध मे निरन्तर होनेवाले उपयोगोकी प्ररूपणा करना चाहिये । ( वह इस प्रकार है - ) ओकी अपेक्षा लोभ, माया, क्रोध और मान इस अवस्थित स्वरूप परिताम्रपत्रवाली प्रतिमे 'को वा कहि' के स्थानपर 'को म्हि' पाठ मुद्रित है ( देखो पृ० १६२२ ) | पर वह अशुद्ध है, क्योंकि यह इसी अधिकारके प्रथम गाथाका उत्तरार्ध है, जिसमें कि 'को वाह' पाठ दिया हुआ है ।
१ अभीक्ष्णमुपयोगो मुहुर्मुहुरुपयोग इत्यर्थः । एकस्य जीवस्यैकस्मिन् कषाये पौनःपुन्येनोपयोग इति यावत् । जयघ●